कल्पना कीजिए दो शेर आमने-सामने खड़े हैं—दोनों के पास इतना ज़हर है कि अगर एक ने हमला किया, तो दोनों खत्म हो जाएंगे। क्या वे लड़ेंगे? शायद नहीं। यही विचार परमाणु शक्ति के पीछे छुपा हुआ है।
आज की दुनिया में लगभग 9 देश परमाणु हथियारों से लैस हैं। इनमें भारत और पाकिस्तान जैसे पड़ोसी देश भी शामिल हैं, जिनके बीच तनाव का इतिहास रहा है। अक्सर यह कहा जाता है कि परमाणु हथियार ही शांति बनाए रखते हैं क्योंकि “अगर तुमने मुझ पर हमला किया, तो मैं भी तुम्हें खत्म कर दूंगा।”
लेकिन क्या यह सच में स्थायी शांति की गारंटी है? या फिर यह सिर्फ एक खतरनाक भ्रम है, जो एक दिन हमें तबाही की तरफ ले जा सकता है?
इस लेख में हम जानेंगे कि परमाणु शक्ति कैसे काम करती है, इसके पीछे के तर्क क्या हैं, और क्या यह वास्तव में दुनिया को सुरक्षित बना रही है या सिर्फ एक ग़लत उम्मीद पर टिकी हुई है

परमाणु शक्ति: डर का संतुलन
Mutually Assured Destruction (MAD)—यानि “परस्पर सुनिश्चित विनाश”—एक ऐसा सिद्धांत है जो परमाणु शांति के विचार को जन्म देता है। इस सिद्धांत के अनुसार, अगर दो देशों के पास इतनी ताक़त है कि वे एक-दूसरे को पूरी तरह तबाह कर सकते हैं, तो वे युद्ध नहीं करेंगे।
यही सोच अमेरिका और सोवियत संघ के बीच शीत युद्ध के दौरान भी देखने को मिली, जब दोनों देश हथियारों से लैस थे लेकिन खुली लड़ाई से बचते रहे।
भारत और पाकिस्तान के संदर्भ में भी यह लागू होता है। 1998 में दोनों देशों ने परमाणु परीक्षण किए। इसके बाद से, कई बार तनाव बढ़ा—चाहे वो कारगिल हो या पुलवामा—but एक पूर्ण युद्ध टलता रहा। क्या यही परमाणु शक्ति का “डर” है, जो शांति बनाए हुए है?
⸻
शांति की कीमत: दुर्घटना या ग़लतफ़हमी का डर
परमाणु हथियारों की मौजूदगी भले ही युद्ध रोकती हो, लेकिन यह एक बेहद खतरनाक संतुलन है। एक छोटी सी ग़लतफ़हमी, एक फर्जी अलार्म, या एक गलत निर्णय पूरी मानवता को खतरे में डाल सकता है।
उदाहरण के लिए:
• 1983 में सोवियत यूनियन के एक अधिकारी, Stanislav Petrov, ने एक कंप्यूटर अलर्ट को झूठा माना—वरना वह अमेरिका पर परमाणु हमला करवा सकता था।
• 2019 में भारत और पाकिस्तान के बीच बालाकोट एयर स्ट्राइक के बाद दोनों देशों में तनाव इतना बढ़ा कि दुनिया को चिंता थी कि कहीं यह परमाणु टकराव में न बदल जाए।
सवाल यह है: क्या हमें ऐसी “शांति” पर भरोसा करना चाहिए जो सिर्फ डर के दम पर टिकी हो?
⸻
कौन सुरक्षित है और कौन नहीं?
परमाणु शक्ति के समर्थक कहते हैं कि ये हथियार सिर्फ रक्षा के लिए हैं। लेकिन अगर ये इतने ही “सुरक्षित” हैं, तो इतने बड़े-बड़े सुरक्षा प्रोटोकॉल क्यों बनाए जाते हैं?
भारत जैसे देश में, जहाँ बिजली, जल और स्वास्थ्य जैसी मूलभूत ज़रूरतें आज भी हर नागरिक तक नहीं पहुँचीं, क्या अरबों रुपये परमाणु हथियारों पर खर्च करना समझदारी है?
दूसरी तरफ, परमाणु हथियार सिर्फ युद्ध के समय ही नहीं, शांति के समय भी खतरा बने रहते हैं।
• रेडियोएक्टिव लीक का डर,
• परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा,
• आतंकी संगठनों द्वारा हथियार चुराने का खतरा—ये सब रोज़ाना के खतरे हैं।
⸻
क्या बिना परमाणु हथियारों के भी हो सकती है शांति?
कुछ देश ऐसे भी हैं जिन्होंने परमाणु हथियार छोड़ दिए और फिर भी शांति कायम रखी—जैसे कि दक्षिण अफ्रीका, जिसने 1990 के दशक में अपने परमाणु हथियार नष्ट कर दिए।
जापान जैसे देश, जो खुद परमाणु हमले का शिकार रह चुका है (हिरोशिमा और नागासाकी), आज शांति का प्रतीक बन चुका है—बिना किसी परमाणु ताक़त के।
यानी परमाणु शक्ति के बिना भी शांति संभव है—बस इसके लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति और अंतर्राष्ट्रीय सहयोग की ज़रूरत है।
⸻
भारत-पाकिस्तान पर विशेष दृष्टि
भारत और पाकिस्तान के बीच बार-बार तनाव होता है, लेकिन परमाणु हथियारों की मौजूदगी ही शायद इन टकरावों को सीमित कर देती है। हालांकि, यह स्थिति स्थायी समाधान नहीं है।
• जब तक दोनों देश कश्मीर जैसे मुद्दों पर बातचीत नहीं करते,
• जब तक कूटनीति को ताकत से ऊपर नहीं रखा जाता,
• और जब तक दोनों देशों की जनता शांति को प्राथमिकता नहीं देती—
तब तक यह परमाणु संतुलन केवल एक अस्थायी “शांति का भ्रम” बना रहेगा।
परमाणु शक्ति एक डबल-एज्ड तलवार है। एक तरफ यह युद्ध रोक सकती है, लेकिन दूसरी तरफ एक गलती में पूरी सभ्यता को खत्म कर सकती है।
शांति अगर डर पर टिकी हो, तो वह देर-सवेर टूट सकती है।
असली शांति तब होगी जब हम युद्ध की जड़—घृणा, ग़रीबी, और गलतफहमी—को खत्म करेंगे।
तो सवाल यह नहीं है कि क्या परमाणु शक्ति शांति लाती है, बल्कि यह है कि क्या हम बिना परमाणु शक्ति के शांति बना सकते हैं?