उत्तर प्रदेश का पूर्वांचल इलाका न केवल सांस्कृतिक दृष्टि से समृद्ध है, बल्कि यह अपराध और राजनीति के खतरनाक गठजोड़ के लिए भी कुख्यात रहा है। खासकर गोरखपुर, जो कभी शिक्षा और धर्म का केंद्र माना जाता था, धीरे-धीरे गैंगवॉर का अखाड़ा बन गया। ब्राह्मण और ठाकुर गुटों के बीच वर्चस्व की लड़ाई ने गोरखपुर को बंदूक की गोलियों और राजनीतिक उठापटक में उलझा दिया।
🏛️ गोरखपुर यूनिवर्सिटी से शुरू हुआ जातीय संघर्ष
1957 में जब गोरखपुर यूनिवर्सिटी की स्थापना हुई, तो दो शक्तिशाली हस्तियों – जिलाधिकारी एसएनएम त्रिपाठी (ब्राह्मण) और महंत दिग्विजय नाथ (ठाकुर, गोरखनाथ मंदिर से जुड़े) – के बीच विश्वविद्यालय पर नियंत्रण को लेकर संघर्ष शुरू हो गया।
- त्रिपाठी चाहते थे कि ब्राह्मण वर्चस्व स्थापित हो
- वहीं महंत दिग्विजय नाथ ठाकुरों के प्रतिनिधि बनकर उभरे
इसी विवाद से गोरखपुर में ब्राह्मण बनाम ठाकुर सत्ता संघर्ष की नींव पड़ी।
🎓 हरिशंकर तिवारी और वीरेंद्र शाही की एंट्री
पंडित हरिशंकर तिवारी
- 1960 में गोरखपुर यूनिवर्सिटी से सोशियोलॉजी में MA किया
- यहीं से उन्होंने राजनीति और सरकारी ठेकों में अपनी जड़े जमाईं
- ब्राह्मण राजनीति का चेहरा बने
- लगातार 6 बार विधायक और कई सरकारों में कैबिनेट मंत्री बने
ठाकुर वीरेंद्र प्रताप शाही
- बलवंत सिंह की हत्या के बाद गोरखपुर पहुंचे
- ठाकुर गुट को संगठित किया और गैंगवॉर में कूद पड़े
- बस्ती जिले से आए लेकिन गोरखपुर की राजनीति में पैर जमाए
🔫 गैंगवॉर की शुरुआत: जब गोलियां बहस का ज़रिया बन गईं
1978 में बलवंत सिंह की हत्या से गोरखपुर की सियासत सुलग उठी। इसके बाद एक के बाद एक हत्याएं होने लगीं। शहर गोलियों की आवाज़ों से गूंजने लगा।
कुछ अहम घटनाएं:
- वीरेंद्र शाही के समर्थक बेच पांडे की हत्या
- बदले में तिवारी गुट के 3 सदस्यों की हत्या
- खुलेआम विधायक रविंद्र सिंह की कनपटी पर रिवॉल्वर रखना
यह एक ऐसा दौर था जब पूर्वांचल में लाशों की गिनती बंद हो गई थी।
💣 राजनीति में अपराध का प्रवेश और संरक्षण
दोनों गुटों को अपनी-अपनी जाति के नेताओं का संरक्षण मिला।
गुट | राजनीतिक संरक्षण |
---|---|
पंडित हरिशंकर तिवारी | श्रीपति मिश्र, कमलापति त्रिपाठी |
वीरेंद्र शाही | वीर बहादुर सिंह (CM), अवैद्यनाथ (गोरखनाथ पीठ) |
🦁 “शेर पूर्वांचल” का उदय और पतन
वीरेंद्र शाही ने “शेर” चुनाव चिन्ह पर निर्दलीय जीत दर्ज की। लेकिन उनका राजनीतिक करियर ज्यादा लंबा नहीं चल पाया।
1997 में श्रीप्रकाश शुक्ला नाम के एक खतरनाक गैंगस्टर ने लखनऊ में सरेआम AK-47 से शाही की हत्या कर दी।
🕴️ श्रीप्रकाश शुक्ला: यूपी का सबसे खतरनाक डॉन
- मामखोर गांव से निकला था यह ब्राह्मण लड़का
- एक मामूली छेड़खानी की घटना के बाद अपराध की दुनिया में आया
- शौक: महंगी गाड़ियां, लड़कियां, मसाज पार्लर
- पुलिस ने उसकी पहचान छुपाने के लिए सुनील शेट्टी की तस्वीर में उसका चेहरा लगाकर अखबारों में छापा
शुक्ला की क्रूरता:
- हर शिकार पर AK-47 की पूरी मैगजीन खाली करता
- यहां तक कि उसने मुख्यमंत्री कल्याण सिंह की हत्या की सुपारी भी ली थी
🛡️ STF की एंट्री: शुक्ला के खात्मे की योजना
श्रीप्रकाश शुक्ला के आतंक को खत्म करने के लिए यूपी सरकार ने स्पेशल टास्क फोर्स (STF) का गठन किया।
23 सितंबर 1998 को दिल्ली में STF ने मुठभेड़ में शुक्ला को मार गिराया, और उसी के साथ यूपी के सबसे कुख्यात गैंगस्टर का अंत हुआ।
🤝 क्यों जिंदा रहे सिर्फ हरिशंकर तिवारी?
- श्रीप्रकाश शुक्ला और वीरेंद्र शाही, दोनों में हिंसक प्रवृत्ति थी
- तिवारी शातिर, व्यवहारिक और राजनीतिक रूप से चतुर थे
- उन्होंने खुद को बाहुबलियों का नेता नहीं, बल्कि ‘समाजसेवी’ की छवि में ढाल लिया
👉 यही वजह रही कि 2023 में अपनी मौत तक तिवारी राजनीति में बने रहे, जबकि अन्य या तो मारे गए या गुमनामी में खो गए।
🧠 निष्कर्ष: पूर्वांचल की राजनीति और अपराध का घातक मेल
पूर्वांचल की राजनीति जाति, अपराध और सत्ता के त्रिकोण में उलझी रही है। चाहे वह हरिशंकर तिवारी हों, वीरेंद्र शाही या श्रीप्रकाश शुक्ला—इनमें से किसी ने भी सत्ता के लिए खून बहाने से परहेज नहीं किया। यह कहानी हमें बताती है कि जब शिक्षा संस्थान, धार्मिक स्थल और राजनीति आपस में मिलते हैं, तो किस हद तक अपराध का जन्म होता है।