दुनिया चीन को सुपरपावर मानती है, लेकिन हकीकत यह है कि चीन की आर्थिक चकाचौंध सिर्फ एक झूठा मुखौटा है। असल में वहां करोड़ों लोग भूख, शोषण और कर्ज़ की दलदल में फंसे हुए हैं। यह तथाकथित “इकोनॉमिक मिरैकल” असल में इंसानी जिंदगी की बर्बादी का दूसरा नाम बन चुका है।
1. चीन में मांस खाना सपना बन गया: करोड़ों मजदूर कुपोषण के शिकार
चीन की गलियों और फैक्ट्रियों में आज एक आम बात सुनने को मिलती है — “साल में सिर्फ एक बार मांस खाते हैं।” सोचिए, 21वीं सदी में दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था में इंसान इतना मजबूर है कि मांस, अंडा और दूध जैसी जरूरी चीजें भी उसकी पहुंच से बाहर हैं।
- युवा पीढ़ी मजबूरी में कुपोषित रह रही है।
- सरकार 2030 तक 70 किलो मांस का लक्ष्य बताती है, लेकिन आज लोग आलू-चावल पर जी रहे हैं।
- प्रोटीन की कमी से मजदूर बीमार, कमजोर और थके हुए हैं।
चीन के विकास की बुनियाद ही कुपोषित और थके हुए मजदूरों पर टिकी है। यह विकास नहीं, एक धीमा ज़हर है।
2. मजदूरी के नाम पर मज़ाक: 15 घंटे काम, 1 डॉलर दाम
चीन में इंसानी मेहनत की कोई कीमत नहीं बची है। सुबह 3 बजे लाइन में लगकर मजदूर सिर्फ उम्मीद करते हैं कि आज का पेट भरने लायक पैसा मिल जाए।
- 15-15 घंटे खतरनाक काम, सिर्फ 9 युआन (लगभग 1 डॉलर) प्रति घंटा।
- 111 दिन लगातार काम, बिना छुट्टी, बिना सुरक्षा।
- अंत में इतनी कम कमाई कि किराया, खाना, इलाज किसी का खर्च पूरा नहीं होता।
ये कोई नौकरी नहीं, बल्कि खुला शोषण है। मज़दूरों को थकाकर, रगड़कर चीन की GDP चमकाई जा रही है।
3. अपनी तनख्वाह खुद खरीदो: चीन में ‘लोन की तनख्वाह’ सिस्टम
चीन में आज हालात ये हैं कि लोग महीनेभर खून-पसीना बहाकर जो कमाते हैं, वो भी सीधे बैंक और सरकार हड़प लेती है।
- सैलरी खाते में आने से पहले ही हाउसिंग लोन में कट जाती है।
- कई बार पूरी तनख्वाह चली जाती है, हाथ में सिर्फ डिजिटल स्लिप बचती है।
- सरकार इसे विकास कहती है, पर असल में ये मज़दूरों की जेब काटने की साजिश है।
यह सिस्टम मजदूरों को जबरन कर्ज़ में धकेल रहा है ताकि दिखावटी ग्रोथ के आंकड़े बढ़ाए जा सकें। असल में लोग कंगाल होते जा रहे हैं।
4. विकास की चमक, मजदूरों की बर्बादी
शेन्ज़ेन जैसे बड़े शहरों में गगनचुंबी इमारतें और तकनीक की चकाचौंध दिखती है, लेकिन वहां मजदूरों को सिर्फ 370 डॉलर मासिक मिलते हैं — यूरोप के मुकाबले एक तिहाई से भी कम।
- चमकते शहर, भूखे लोग।
- ऊपर अमीरों की विलासिता, नीचे गरीबों की लाचारी।
- कोई मज़दूर यूनियन नहीं, कोई सुरक्षा नहीं।
ये सिस्टम आम आदमी को सिर्फ ‘इंसानी ईंधन’ मानता है — इस्तेमाल करो, जला दो, और नया खोजो।
5. पढ़ाई का मतलब बर्बादी: डिग्रीधारी युवा भी बेरोजगार
चीन में पढ़ाई अब बेकार हो चुकी है। युवा चाहे टॉप यूनिवर्सिटी से पढ़े हों, डिग्रियों से लैस हों — फिर भी नौकरी नहीं।
- 2000-3000 युआन मासिक वेतन, जिससे जिंदगी चलाना नामुमकिन।
- सरकारी नौकरियों में 1200 में से सिर्फ 1 को मौका।
- प्राइवेट सेक्टर में भर्तियां बंद, अनुभव की मांग बेहिसाब।
युवाओं में गुस्सा, हताशा और पलायन की लहर चल रही है। ‘मेहनत से किस्मत बदलो’ का सपना अब मज़ाक बन गया है।
6. चीन की कंस्ट्रक्शन इंडस्ट्री तबाह: अधूरे प्रोजेक्ट्स, भूखे मज़दूर
कभी चीन की इमारतें दुनिया में उसकी ताकत की पहचान थीं। आज वही सेक्टर ध्वस्त हो रहा है।
- मज़दूर महीनों से तनख्वाह के लिए दर-दर भटक रहे हैं।
- बड़े अधिकारी आलीशान घरों और विदेशी गाड़ियों में मस्त हैं।
- प्रोजेक्ट्स अधूरे, कंपनियों में पैसे की जगह कर्ज़ का जाल।
ये कोई आर्थिक गिरावट नहीं, बल्कि खुलेआम धोखाधड़ी है। आम आदमी से मेहनत कराकर पैसा ऊपर वालों की जेब में जा रहा है।
निचोड़: चीन की “सुपरपावर” कहानी एक बड़ा झूठ
आज चीन की हकीकत यही है:
❌ भूखा और कुपोषित मजदूर
❌ मज़दूरी के नाम पर शोषण
❌ कर्ज़ में डूबा आम आदमी
❌ पढ़े-लिखे युवाओं का भविष्य बर्बाद
❌ इन्फ्रास्ट्रक्चर सेक्टर का पतन
चीन का विकास सिर्फ आंकड़ों और दिखावे तक सीमित है। असल में उसकी जड़ें खोखली हो चुकी हैं। मजदूर वर्ग टूट रहा है, युवा पीढ़ी निराश है, और सिस्टम अंदर ही अंदर सड़ रहा है।
सवाल ये नहीं कि ये व्यवस्था कब गिरेगी, सवाल ये है कि इसकी कीमत कौन चुकाएगा?