एक भूली हुई कहानी, जो आज भी जिंदा है
यह सिर्फ एक कहानी नहीं, हमारी आस्था, अस्तित्व और साहस की कहानी है। ऐसा संघर्ष जिसे इतिहास की किताबों में कहीं कोने में छुपा दिया गया। लेकिन काशी की इस लड़ाई को जितना दबाया गया, उतनी ही बार वह और ताकत के साथ सामने आई। यह है ज्ञानवापी का युद्ध, जहां केवल तलवारें नहीं, बल्कि धर्म और संस्कृति की रक्षा के लिए पूरा समाज खड़ा हुआ।
औरंगजेब की साजिश: काशी पर इस्लामी कट्टरता की गहरी नजर
सन् 1658 में औरंगजेब ने सत्ता संभाली। अपने पिता शाहजहां को बंदी बनाकर वह मुगल साम्राज्य का सबसे कट्टर शासक बना। शरीयत आधारित शासन, जजिया कर, हिंदू मंदिरों पर हमले — यह सब उसकी नीतियों में शामिल था।
काशी, गंगा किनारे बसा पवित्र तीर्थ, औरंगजेब के निशाने पर था। उसे काशी विश्वनाथ मंदिर हिंदुओं की शक्ति का प्रतीक नजर आता था।
मंदिर पर दबाव और नागा साधुओं का गुस्सा
1660 के दशक में मुगल अधिकारियों ने मंदिरों की निगरानी, ब्राह्मणों से पूछताछ और धार्मिक आयोजनों पर रोक लगाना शुरू कर दिया। यह खबर जैसे ही नागा साधुओं तक पहुंची, काशी में हलचल मच गई।
नागा अखाड़ों की भूमिका:
- काशी में नागा साधुओं की बड़ी मौजूदगी थी।
- उन्होंने इस हस्तक्षेप को धार्मिक स्वतंत्रता पर हमला माना।
- गुप्त बैठकों में निर्णय लिया गया कि किसी भी हाल में मंदिर की पवित्रता से समझौता नहीं होगा।
संघर्ष की शुरुआत: मंदिर पर मुगल दस्ते की चढ़ाई
1664 में औरंगजेब के आदेश पर एक विशेष मुगल दस्ता काशी भेजा गया।
उनका मकसद साफ था:
- काशी विश्वनाथ मंदिर और अन्य हिंदू स्थलों का निरीक्षण।
- धार्मिक गतिविधियों पर नजर।
- जरूरत पड़ी तो सख्त कार्रवाई।
काशी की जनता का आक्रोश:
- स्थानीय लोगों में भय और गुस्सा फैल गया।
- मंदिर पर खतरे की खबर तेजी से फैली।
- नागा साधुओं और नागरिकों ने विरोध की तैयारी शुरू कर दी।
पहली भिड़ंत: मंदिर की सीढ़ियों पर लहूलुहान संघर्ष
मुगल सैनिक मंदिर क्षेत्र में दाखिल हुए।
- नागा साधु त्रिशूल, भाले और तलवारें लेकर तैयार थे।
- मंदिर के मुख्य द्वार पर दोनों पक्ष आमने-सामने आ गए।
- झड़प शुरू हुई, कई सैनिक घायल हुए।
- बाजार बंद हो गए, शहर में डर का माहौल फैल गया।
इस संघर्ष ने साफ कर दिया कि यह सिर्फ प्रशासनिक कार्रवाई नहीं, एक धार्मिक युद्ध था।
नागा साधुओं का संगठन और जनता की एकजुटता
नागा अखाड़ों ने मंदिर की सुरक्षा को फौजी रणनीति की तरह मजबूत किया:
✔ मुख्य द्वार पर भारी सुरक्षा।
✔ गंगा घाट की निगरानी।
✔ मंदिर परिसर में नागरिकों का समर्थन।
✔ सिग्नल सिस्टम — शंख, नगाड़े, घंटियों से तुरंत चेतावनी।
काशी की जनता ने खुलकर नागा साधुओं का साथ दिया। व्यापारी, कारीगर, ब्राह्मण, गृहस्थ — सभी इस सांस्कृतिक संघर्ष में कंधे से कंधा मिलाकर खड़े हो गए।
दूसरा हमला: औरंगजेब की नई साजिश और नागाओं की वीरता
1664 के अंत में औरंगजेब ने फिर हमला करवाया:
- 150 से अधिक मुगल सैनिक भेजे गए।
- योजना थी कि मंदिर के पीछे के रास्ते से चोरी-छिपे घुसपैठ की जाए।
- लेकिन नागा साधुओं का सूचना तंत्र सतर्क था।
पीछे के रास्ते पर भीषण मुकाबला:
- सैनिक जैसे ही भीतर घुसे, शंखनाद और नगाड़े गूंज उठे।
- साधुओं ने गर्म रेत, त्रिशूल और तलवारों से जबरदस्त प्रतिरोध किया।
- कई सैनिक घायल हुए, बाकी भाग खड़े हुए।
तीसरी बड़ी लड़ाई: गर्भगृह की रक्षा का ऐतिहासिक उदाहरण
औरंगजेब ने तीसरी बार बड़ा हमला करवाया।
इस बार योजना थी:
✔ तीन दिशाओं से रात में मंदिर पर धावा।
✔ अतिरिक्त तोपखाना और भारी फौज।
✔ शिवलिंग को निशाना बनाना।
लेकिन नागा साधु तैयार थे।
- मुख्य द्वार पर महानिवाणी अखाड़े के साधु डटे रहे।
- घाट की ओर से आने वालों को आग और गर्म तेल से रोका गया।
- तीसरे रास्ते से घुसपैठ करने वालों पर छतों से पत्थर और नीचे से त्रिशूलों से हमला किया गया।
गर्भगृह में अंतिम मोर्चा:
- मुगल सैनिक शिवलिंग तक पहुंचे।
- आनंद अखाड़े के संतों ने मानव श्रृंखला बनाकर शिवलिंग की रक्षा की।
- नौ नागा साधुओं ने प्राण आहुति दी लेकिन शिवलिंग को कोई नुकसान नहीं पहुंचने दिया।
यह संघर्ष सिर्फ लड़ाई नहीं, धर्म और संस्कृति की रक्षा का इतिहास बन गया।
औरंगजेब की हार और सामाजिक जीत
कई बार कोशिशों के बावजूद मुगल फौज काशी में सफल नहीं हो सकी।
- नागा साधुओं की रणनीति और एकजुटता ने मुगलों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया।
- मंदिर एक किले में बदल चुका था।
- काशी की जनता ने धर्म और अस्तित्व की इस लड़ाई में बड़ी भूमिका निभाई।
मुगलों की बदली नीति:
- खुले हमलों की जगह प्रशासनिक दमन।
- जजिया कर वसूली तेज।
- ब्राह्मणों और मंदिरों पर निगरानी।
- पर काशी का आत्मविश्वास अडिग रहा।
निष्कर्ष: सिर्फ इतिहास नहीं, हमारी पहचान
ज्ञानवापी का संघर्ष यह साबित करता है कि जब धर्म, संस्कृति और समाज एकजुट होते हैं, तो कोई भी सत्ता टिक नहीं पाती।
यह कहानी उन साधुओं, ब्राह्मणों और आम लोगों की है जिन्होंने बिना किसी आधुनिक हथियार के भी काशी की रक्षा की।
यह सिर्फ काशी का इतिहास नहीं, पूरे भारत के आत्मसम्मान की कहानी है।
अंतिम संदेश: यह कहानी जितनी दबाई जाएगी, उतनी गूंजेगी
ज्ञानवापी का संघर्ष आज भी हमारी नसों में जोश भरता है।
जब तक हमारी सांसें हैं, कोई औरंगजेब, कोई सत्ता, हमारी आस्था को मिटा नहीं सकती।
यही हमारी असली पहचान है।
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काशी की ये गाथा हर भारतीय तक पहुंचनी चाहिए।
जय काशी, जय भारत।