जब भारत में शराब लेकर आए अंग्रेज ‘सुरा’ से ‘सिग्नेचर’ तक का सफर, जिसमें बस नशा ही नहीं, एक पूरा इतिहास बहता है

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Concept&writer: Yoganand Shrivastava

शराब की कहानी उतनी ही पुरानी है जितनी इंसान की सभ्यता, और शायद उतनी ही जटिल भी। आज जो बोतलें चकाचौंध भरी दुकानों में सजी दिखती हैं — बीयर, रम, व्हिस्की, वाइन — उनका सफर हजारों साल पुराना है। इतिहास के पन्नों में झांकें तो शराब का जिक्र हमें सबसे पहले 3500 से 2900 ईसा पूर्व के बीच मिलता है। मेसोपोटामिया, मिस्र, चीन — ये वो सभ्यताएं थीं जहां इंसान ने पहली बार अनाज और फलों को फरमेंट कर कुछ ऐसा बना लिया जिससे सिर हल्का और मन खुश हो जाता था। भारत में भी इसका इतिहास कम पुराना नहीं है। वैदिक काल में इसे ‘सुरा’ कहा गया — जो कि जौ, चावल, फलों और मसालों से बनाई जाती थी। ऋग्वेद और अथर्ववेद में सुरा का उल्लेख बार-बार मिलता है। देवता सोमरस पीते थे, और इंसान सुरा। यानी पीने की संस्कृति तब भी थी, फर्क बस इतना था कि तब इसे धर्म और अनुष्ठानों से जोड़ा जाता था, न कि पार्टी और मस्ती से।

लेकिन असली बदलाव तब आया जब भारत के तटों पर अंग्रेजों के जहाज़ उतरे। ये वही दौर था जब “भारत की धरती सोने की चिड़िया” कही जाती थी, और अंग्रेज यहां व्यापार के बहाने आए थे — लेकिन साथ लाए थे अपनी आदतें, अपनी संस्कृति, और अपना नशा। 1600 के दशक में जब ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारत में पैर जमाए, तो उनके साथ आई वो चीज़ जो जल्द ही “राजसी ठाठ” का प्रतीक बन गई — शराब। उस समय भारत में पहले से देसी शराबें मौजूद थीं — ताड़ी, महुआ, चांदनी (देशी दारू) जैसी। लेकिन ब्रिटिशर्स ने भारतीय बाजार में ‘मॉर्डन एल्कोहॉल’ का कॉन्सेप्ट लाया — खासकर बीयर और रम। शुरुआती दौर में बीयर सिर्फ अंग्रेज अफसरों के लिए थी, जो गर्मी से बेहाल हिंदुस्तान में ठंडी बीयर को राहत के रूप में देखते थे।

कहानी के पीछे दिलचस्प किस्सा यह है कि ब्रिटिश सैनिकों को भारत की गर्मी में बीयर की जरूरत महसूस हुई, लेकिन यूरोप से लाने में बीयर खराब हो जाती थी। तब 18वीं सदी के अंत में “इंडिया पेल एले (IPA)” की खोज हुई — ऐसी बीयर जो ज्यादा हॉप्स और अल्कोहॉल के कारण लंबे सफर में भी खराब न हो। इसी बीयर को कहा गया — “Beer that conquered India before the British did.” धीरे-धीरे यह बीयर सिर्फ अंग्रेज अफसरों तक सीमित नहीं रही, बल्कि भारतीय राजाओं और उच्च वर्ग के बीच भी प्रतिष्ठा का प्रतीक बन गई।

अंग्रेजों ने भारत में शराब को सिर्फ पीने की चीज़ नहीं, बल्कि ‘क्लास’ और ‘कल्चर’ का हिस्सा बना दिया। 19वीं सदी में जब क्लब कल्चर शुरू हुआ — जैसे बॉम्बे जिमखाना, कलकत्ता क्लब — वहां शराब समाज के “एलीट” होने की निशानी मानी जाने लगी। वहीं दूसरी तरफ, भारतीय समाज के बड़े हिस्से में शराब को पाप माना गया, विशेषकर महिलाओं और दलित तबकों के लिए। यानी शराब ने समाज को दो हिस्सों में बांट दिया — एक वो जो ‘पिए’ तो जेंटलमैन, और दूसरा वो जो ‘पिए’ तो अपराधी।

आज जब आप किसी पार्टी में बीयर या व्हिस्की का ग्लास उठाते हैं, तो शायद आपको अंदाज़ा नहीं होता कि इस पेय का भारत में आना सिर्फ एक व्यापारिक एक्सपोर्ट नहीं, बल्कि सांस्कृतिक इम्पोर्ट था। ब्रिटिश राज के दौरान “रामपुर डिस्टिलरी” (1862), “एशिया की पहली बीयर ब्रुअरी” (Kasauli Brewery, 1835), और “मोहान मीकिन” (Old Monk बनाने वाली कंपनी) जैसी फैक्ट्रियां खुलीं। इन फैक्ट्रियों ने भारत में शराब को औद्योगिक स्तर पर जन्म दिया। धीरे-धीरे “देशी दारू” और “विदेशी शराब” के बीच फर्क बढ़ा। देशी पीने वाला गरीब माना गया, और विदेशी शराब पीने वाला “सभ्य।”

आजादी के बाद, सरकार ने शराब पर नियंत्रण की नीतियां बनाईं। कुछ राज्यों ने पूर्ण शराबबंदी लागू की — जैसे गुजरात, बिहार, नागालैंड। लेकिन इन बंदिशों के बावजूद शराब ने अपने रास्ते ढूंढ लिए। जितना मना किया गया, उतना ही आकर्षण बढ़ा। 1980-90 के दशक में टीवी और फिल्मों ने शराब को “हीरो” की लाइफस्टाइल बना दिया। अमिताभ बच्चन की “शराबी” हो या शाहरुख खान की “देवदास” — शराब को ग़म मिटाने या मर्दानगी दिखाने के प्रतीक के रूप में पेश किया गया।

फिर आया 2000 का दशक — जब बीयर पब कल्चर ने भारत की शहरों की रातें बदल दीं। किंगफिशर, कार्ल्सबर्ग, बडवाइज़र जैसी कंपनियों ने भारतीय युवाओं को टारगेट किया। अब शराब सिर्फ पीने की चीज़ नहीं, बल्कि “सोशल एक्सपीरियंस” बन गई। दूसरी तरफ, सरकारों के लिए ये राजस्व का सबसे बड़ा स्रोत भी बनी। आंकड़ों के मुताबिक, भारत में शराब से सालाना 2.5 लाख करोड़ रुपये से ज्यादा का टैक्स कलेक्ट होता है। और अनुमान है कि 2024 से 2029 के बीच प्रति व्यक्ति शराब की खपत 0.1 लीटर बढ़ेगी। यानी नशे की रफ्तार थमने वाली नहीं।

लेकिन इस कहानी का दूसरा पहलू भी है — लत, हिंसा और तबाही। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, घरेलू हिंसा और सड़क हादसों का बड़ा हिस्सा शराब से जुड़ा है। स्वास्थ्य रिपोर्ट्स कहती हैं कि भारत में हर साल करीब 3.5 लाख मौतें सीधे तौर पर शराब के सेवन से जुड़ी हैं। यानी वो चीज़ जो कभी “ब्रिटिश सभ्यता” के प्रतीक के रूप में आई थी, अब हमारे समाज की कई बुराइयों की जड़ बन गई है।

दिलचस्प ये है कि अब भारत भी शराब एक्सपोर्ट करने वाला देश बन चुका है। गोवा, हिमाचल और राजस्थान में अब भारतीय ब्रांड्स — जैसे Amrut, Paul John, Simba, Bira — दुनिया के बाजार में धूम मचा रहे हैं। विदेशी लोग अब “इंडियन व्हिस्की” को टेस्ट करने के लिए कतार में खड़े हैं। यानी कहानी अब पलट चुकी है — कभी अंग्रेज शराब लेकर आए थे, अब भारत शराब बेच रहा है।

तो जब अगली बार आप किसी दोस्त की पार्टी में बीयर का ग्लास उठाएं, तो याद रखिए — ये सिर्फ एक ड्रिंक नहीं है। इसके साथ भारत की हजारों साल की यात्रा, संस्कृतियों का टकराव, और समाज के बदलते चेहरे की कहानी जुड़ी है। वैदिक “सुरा” से लेकर ब्रिटिश “बीयर” तक, और वहां से आधुनिक “क्राफ्ट ब्रूअरी” तक — ये सिर्फ नशे की नहीं, बल्कि एक पूरे युग की कहानी है।

कहानी का निचोड़ यही है — शराब आई, रुक गई, बदली, और अब हमारी जिंदगी का हिस्सा बन गई। लेकिन इतिहास यही कहता है — जिस चीज़ ने मज़ा दिया, उसने कभी न कभी सज़ा भी दी है। तो इस बोतल में सिर्फ शराब नहीं, इतिहास भी तैरता है — और हर घूंट में एक पुराना किस्सा कहता है, “मैं सिर्फ नशा नहीं, एक सभ्यता का आईना हूं।”

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