भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 8 अप्रैल, 2025 को एक ऐतिहासिक फैसला सुनाते हुए राष्ट्रपति की शक्तियों पर स्पष्ट सीमाएं तय कीं। यह फैसला तमिलनाडु सरकार बनाम तमिलनाडु के राज्यपाल मामले में दिया गया, जिसमें संविधान के अनुच्छेद 201 के तहत राज्य विधानमंडल द्वारा पारित विधेयकों पर राष्ट्रपति की भूमिका को परिभाषित किया गया।
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फैसले के मुख्य बिंदु
1. राष्ट्रपति के फैसले न्यायिक समीक्षा के दायरे में
- अदालत ने कहा कि राष्ट्रपति द्वारा विधेयकों को मंजूरी देने या रोकने का फैसला न्यायिक समीक्षा के अधीन होगा।
- अगर विधेयक केंद्र सरकार के अधीन विषय से जुड़ा है, तो न्यायालय केवल मनमानेपन या दुर्भावना की जांच करेगा।
- अगर विधेयक राज्य सरकार के अधिकार क्षेत्र में आता है, तो राष्ट्रपति को कानूनी कारण बताने होंगे।
2. राष्ट्रपति के पास ‘पॉकेट वीटो’ नहीं
- राष्ट्रपति अनिश्चित काल तक विधेयकों को रोक नहीं सकते।
- उन्हें 3 महीने के भीतर फैसला लेना होगा।
- अगर देरी होती है, तो राज्य सरकार को कारण बताने होंगे।
3. विधेयक को बार-बार वापस भेजने पर रोक
- राष्ट्रपति विधेयक को केवल एक बार राज्य विधानमंडल के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकते हैं।
- अगर विधानमंडल विधेयक को फिर से पास कर देता है, तो राष्ट्रपति को अंतिम फैसला (हां या ना) करना होगा।
4. विधेयक की संवैधानिकता का फैसला केवल न्यायपालिका करेगी
- अगर किसी विधेयक को संवैधानिक शंकाओं के कारण रोका गया है, तो कार्यपालिका (राष्ट्रपति) खुद फैसला नहीं कर सकती।
- ऐसे मामलों में सुप्रीम कोर्ट से अनुच्छेद 143 के तहत राय लेनी होगी।
- अदालत की राय को अस्वीकार करने के लिए मजबूत कारण होने चाहिए।
यह फैसला क्यों महत्वपूर्ण है?
✅ राज्यों की स्वायत्तता की रक्षा – राज्य सरकारों द्वारा पारित कानूनों को अनावश्यक रूप से रोका नहीं जा सकेगा।
✅ संघीय ढांचे को मजबूती – केंद्र और राज्यों के बीच शक्ति संतुलन बना रहेगा।
✅ पारदर्शिता बढ़ेगी – राष्ट्रपति को हर फैसले का कारण बताना होगा।
निष्कर्ष
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला भारतीय लोकतंत्र और संविधान की मूल भावना को मजबूत करता है। यह सुनिश्चित करता है कि राज्यों के कानूनी अधिकारों का सम्मान हो और कार्यपालिका की मनमानी पर अंकुश लगे।