रिपोर्ट: ललित विष्ट, अल्मोड़ा, by: vijay nandan
अल्मोड़ा: गर्मियों की दस्तक के साथ ही उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में जंगलों में आग की घटनाएं बढ़ने लगी हैं। इन दिनों नगर और उसके आसपास के इलाकों में घनी धुंध छाई हुई है, जिससे पहाड़ियों की दृश्यता लगभग शून्य हो गई है। इस धुंध का असर आम जनजीवन पर भी साफ़ देखा जा सकता है।
बीते वर्ष जंगलों में लगी आग के कारण जान-माल को भारी नुकसान झेलना पड़ा था। इससे सबक लेते हुए इस बार प्रशासन ने पहले से सतर्कता बरती है। वन विभाग के साथ-साथ पुलिस और जिला प्रशासन की टीमें भी आग बुझाने के प्रयासों में जुटी हुई हैं।
अल्मोड़ा के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक (SSP) देवेंद्र पींचा ने जिले के सभी थानों, चौकियों और फायर स्टेशनों को अलर्ट मोड में रहने के निर्देश दिए हैं। उन्होंने साफ कहा है कि जंगल में आग लगने की सूचना मिलते ही तत्काल कार्रवाई की जाए।

बाइट: देवेंद्र पींचा, एसएसपी अल्मोड़ा
“हर साल इस जंगल में आग क्यों लगती है, क्या वन अमले की लापरवाही है, या प्रकृति खुद अपने को रिवाइज करती है—ये एक गंभीर सवाल है। हमारी प्राथमिकता आग पर काबू पाना और नुकसान को रोकना है।”
सवाल का सामाजिक और प्रशासनिक पक्ष:
- “हर साल इस जंगल में आग क्यों लगती है?”
यह एक तथ्यात्मक और लगातार दोहराया जाने वाला संकट है, जिससे यह सवाल खड़ा होता है कि क्या प्रशासनिक तैयारी में कोई कमी है।- क्या फॉरेस्ट डिपार्टमेंट समय रहते अलर्ट करता है?
- क्या स्थानीय लोगों में जागरूकता फैलाई जाती है?
- क्या सामुदायिक निगरानी और सामूहिक प्रयास किए जाते हैं?
यह भाग शासन-प्रशासन, नीति निर्माण, और क्रियान्वयन पर सवाल खड़ा करता है।
2. संभावित लापरवाही का आरोप:
- “क्या वन अमले की लापरवाही है?”
यह आरोप बेहद संवेदनशील है, क्योंकि अगर ये सच है तो यह मानवजनित आपदा बन जाती है, प्राकृतिक नहीं।- कुछ आम उदाहरण:
- पत्तियों या सूखी लकड़ियों का ठीक से न片 हटाना।
- निगरानी का अभाव।
- आग बुझाने की तैयारियों में ढिलाई।
- अगर लापरवाही है, तो यह आपराधिक लापरवाही बन सकती है।
- कुछ आम उदाहरण:
यह भाग प्रशासनिक जवाबदेही पर केंद्रित है।
3. प्रकृति द्वारा खुद को रिवाइज करने की बात:
- “या प्रकृति खुद अपने को रिवाइज करती है?”
यह विचार पर्यावरणीय दृष्टिकोण से आता है — कुछ वैज्ञानिक मान्यताओं के अनुसार:- कुछ प्रकार की वनस्पतियाँ ऐसी होती हैं जो आग लगने के बाद ही पुनर्जीवित होती हैं (जैसे पाइन के जंगल)।
- प्राकृतिक आग कभी-कभी इकोलॉजिकल बैलेंस बनाए रखने के लिए होती है — पुराने पत्तों की सफ़ाई, बीजों का अंकुरण, आदि।
लेकिन ये ‘नेचुरल फायर’ तभी मानी जा सकती है जब मानवीय हस्तक्षेप न हो।
यह पंक्ति तीन स्तरों पर एक साथ सवाल उठाती है:
- बार-बार की घटनाओं पर चिंता (pattern recognition)।
- प्रशासन और वन विभाग की जवाबदेही पर सवाल।
- प्रकृति के स्वाभाविक संतुलन की भूमिका पर विचार।
इस लाइन की खूबी ये है कि यह एक ही फ्रेम में तथ्य, शक और संभावना तीनों को शामिल करती है, और पाठक/दर्शक को सोचने पर मजबूर करती है।
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