नमस्ते दोस्तों, आज हम एक ऐसे मुद्दे पर बात करने जा रहे हैं जो भारत के हर मध्यमवर्गीय परिवार को प्रभावित करता है—स्कूल फीस और किताबों की कीमतें। अगर आप एक अभिभावक हैं, तो आपने निश्चित रूप से निजी स्कूलों की मनमानी फीस और हर साल बदलने वाली किताबों की कीमतों से होने वाली परेशानी को महसूस किया होगा। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह सिर्फ आपकी व्यक्तिगत समस्या नहीं है? यह एक राष्ट्रीय मुद्दा है, जिसके खिलाफ कई परिवार और संगठन कोर्ट में लड़ रहे हैं। आज हम भारत में स्कूल फीस और किताबों की कीमतों से संबंधित कानूनी मामलों का विश्लेषण करेंगे, कुछ हालिया खबरों के उदाहरणों के साथ, और देखेंगे कि सिस्टम में कहां खामियां हैं और इसे कैसे ठीक किया जा सकता है। तो चलिए शुरू करते हैं!
स्कूल फीस: मध्यम वर्ग की जेब पर बोझ
भारत में शिक्षा को अक्सर एक पवित्र कार्य माना जाता है, लेकिन निजी स्कूलों की बढ़ती फीस ने इसे एक व्यवसाय बना दिया है। एक सर्वे के मुताबिक, पिछले तीन सालों में 44% अभिभावकों ने स्कूल फीस में 50-80% की बढ़ोतरी देखी है, और 8% का कहना है कि यह 80% से भी ज्यादा बढ़ी है। दिल्ली जैसे शहरों में नामी स्कूल, जैसे दिल्ली पब्लिक स्कूल (DPS) या महाराजा अग्रसेन मॉडल स्कूल, हर साल बिना किसी ठोस कारण के फीस बढ़ा रहे हैं। उदाहरण के लिए, DPS आरके पुरम में केवल एडमिशन के लिए 25,200 रुपये देने पड़ते हैं।
लेकिन क्या यह सिर्फ ट्यूशन फीस तक सीमित है? बिल्कुल नहीं! अभिभावकों को लैब फीस, मेंटेनेंस फीस, ट्रांसपोर्ट फीस, और किताबों-स्टेशनरी के लिए अलग से भुगतान करना पड़ता है। टियर 1 और टियर 2 शहरों में निजी स्कूलों की मासिक फीस 2,500 से 8,000 रुपये तक हो सकती है, और कुल खर्च इससे दोगुना हो जाता है। दूसरी ओर, सरकारी स्कूलों में सालाना 20,000 रुपये से कम में पढ़ाई हो जाती है, लेकिन वहां शिक्षकों की कमी और बुनियादी ढांचे की खराब स्थिति अभिभावकों को निजी स्कूलों की ओर धकेलती है।
कानूनी लड़ाई: क्या कहते हैं कोर्ट?
निजी स्कूलों की मनमानी फीस के खिलाफ कई अभिभावक और संगठन कोर्ट का रुख कर रहे हैं। आइए कुछ प्रमुख मामलों पर नजर डालें:
- सुप्रीम कोर्ट का 2021 का फैसला (राजस्थान)
सुप्रीम कोर्ट ने 2021 में एक अहम फैसला सुनाया, जिसमें कहा गया कि राज्य सरकारें निजी स्कूलों की स्वायत्तता पर अतिक्रमण नहीं कर सकतीं, खासकर कोविड महामारी के नाम पर। राजस्थान सरकार ने स्कूलों को फीस कम करने का आदेश दिया था (CBSE स्कूलों के लिए 70% और राज्य बोर्ड के लिए 60% फीस वसूलने की अनुमति), लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने इसे खारिज कर दिया। हालांकि, कोर्ट ने स्कूलों को निर्देश दिया कि वे उपयोग न होने वाली सुविधाओं (जैसे लैब, स्पोर्ट्स) के लिए 15% फीस कम करें। कोर्ट ने यह भी कहा कि स्कूलों को फीस का भुगतान न होने पर किसी छात्र को ऑनलाइन या फिजिकल क्लास से रोकने या उनके रिजल्ट रोकने का अधिकार नहीं है। अगर कोई अभिभावक फीस देने में असमर्थ है, तो स्कूल को उनकी स्थिति को “संवेदनशीलता” के साथ देखना चाहिए। - दिल्ली हाई कोर्ट: फीस नहीं देने पर बच्चों को नहीं रोका जा सकता
2023 में दिल्ली हाई कोर्ट ने एक ऐतिहासिक फैसला सुनाया कि फीस न देने के कारण किसी बच्चे को स्कूल में पढ़ने या बोर्ड परीक्षा देने से नहीं रोका जा सकता। कोर्ट ने कहा कि शिक्षा एक “परोपकारी कार्य” है और यह बच्चों के “जीवन के अधिकार” का हिस्सा है, जो संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत आता है। इस मामले में एक 10वीं कक्षा के छात्र को स्कूल ने फीस न देने के कारण रोल से हटा दिया था। कोर्ट ने स्कूल को निर्देश दिया कि छात्र को बोर्ड परीक्षा में बैठने की अनुमति दी जाए और अभिभावक को 30,000 रुपये का आंशिक भुगतान करने को कहा। - दिल्ली में अनधिकृत फीस वृद्धि (2025)
हाल ही में दिल्ली के कई नामी स्कूलों, जैसे DPS द्वारका और क्वीन मैरी स्कूल, पर बिना अनुमति फीस बढ़ाने का आरोप लगा। अप्रैल 2025 में अभिभावकों ने DPS द्वारका के बाहर प्रदर्शन किया, क्योंकि स्कूल ने 2020 से 2025 तक हर साल 7-20% फीस बढ़ाई थी। शिक्षा मंत्री आशीष सूद ने इन स्कूलों के खिलाफ ऑडिट की घोषणा की और कहा कि अगर स्कूल दोषी पाए गए, तो सख्त कार्रवाई होगी, जैसे कि स्कूल का रजिस्ट्रेशन रद्द करना।क्वीन मैरी स्कूल, मॉडल टाउन में अभिभावकों ने शिकायत की कि फीस बढ़ोतरी के विरोध में उनके बच्चों को स्कूल से निकाल दिया गया। दिल्ली की मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता ने इस पर “जीरो टॉलरेंस” नीति अपनाने की बात कही और स्कूलों को चेतावनी दी कि वे अभिभावकों या बच्चों को परेशान नहीं कर सकते। - मध्य प्रदेश: स्कूलों और दुकानों के खिलाफ FIR
2024 में मध्य प्रदेश के जबलपुर में 11 स्कूलों और किताबों की दुकानों के खिलाफ FIR दर्ज की गई। जांच में पाया गया कि स्कूल अभिभावकों को अपनी पसंद की दुकानों से किताबें खरीदने के लिए मजबूर कर रहे थे, और किताबों की कीमतों में 70-100% का मार्जिन जोड़ा जा रहा था। इसके अलावा, स्कूल हर साल बिना जरूरत किताबें बदल रहे थे, जिससे अभिभावकों पर 40 करोड़ रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ा।
हालिया खबरों के उदाहरण

स्कूल फीस और किताबों की कीमतों से जुड़ी समस्याएं 2025 में भी सुर्खियों में हैं। आइए कुछ ताजा उदाहरणों पर नजर डालें:
- दिल्ली: अभिभावकों का प्रदर्शन और राजनीतिक तनाव
अप्रैल 2025 में दिल्ली में निजी स्कूलों की फीस वृद्धि के खिलाफ अभिभावकों ने बड़े पैमाने पर प्रदर्शन किए। DPS द्वारका और बिड़ला विद्या निकेतन जैसे स्कूलों पर बिना शिक्षा निदेशालय (DoE) की मंजूरी के फीस बढ़ाने का आरोप लगा। एक अभिभावक, पंकज गुप्ता, ने बताया कि महाराजा अग्रसेन मॉडल स्कूल ने 2024-25 में 19% फीस बढ़ाई, जिसे बाद में विरोध के बाद 9% कर दिया गया, लेकिन बकाया राशि तीन किश्तों में वसूलने का दबाव बनाया गया।आम आदमी पार्टी (AAP) की नेता आतिशी ने मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता को पत्र लिखकर मांग की कि कोई भी स्कूल ऑडिट के बिना फीस न बढ़ाए। दूसरी ओर, AAP ने आरोप लगाया कि दिल्ली के शिक्षा मंत्री आशीष सूद ने 6 अप्रैल 2025 को निजी स्कूलों के मालिकों के साथ बैठक की और उन्हें आश्वासन दिया कि उनके खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होगी। - बेंगलुरु: 20% तक फीस वृद्धि की आशंका
अप्रैल 2025 में बेंगलुरु में अभिभावकों ने चिंता जताई कि निजी स्कूल परिचालन लागत के नाम पर 20% तक फीस बढ़ाने की योजना बना रहे हैं। अभिभावक संगठनों ने सरकार से हस्तक्षेप की मांग की, क्योंकि स्कूलों में पारदर्शिता की कमी है। एक अभिभावक ने बताया कि स्कूल बस की फीस भी बढ़ रही है, जिससे मध्यमवर्गीय परिवारों पर दोहरा बोझ पड़ रहा है। - भोपाल: किताबों की कीमतों पर वकील का वायरल वीडियो
अप्रैल 2025 में भोपाल के एक वकील का वीडियो वायरल हुआ, जिसमें उन्होंने निजी स्कूलों पर महंगी किताबें बेचने का आरोप लगाया। उन्होंने कहा कि नेशनल एजुकेशन पॉलिसी (NEP) के दिशानिर्देशों के बावजूद स्कूल मुनाफे के लिए किताबें बदल रहे हैं। उदाहरण के लिए, कक्षा 1 की किताबों की कीमत 8,000 रुपये तक पहुंच रही है, जो गरीब और मध्यमवर्गीय परिवारों के लिए असहनीय है। - NDTV की मुहिम: ‘स्कूल फीस की फांस’
13 अप्रैल 2025 को NDTV ने ‘स्कूल फीस की फांस’ नाम से एक मुहिम शुरू की, जिसमें अभिभावकों ने अपनी परेशानियां साझा कीं। एक अभिभावक ने बताया कि पिछले पांच सालों में उनके बच्चे की स्कूल फीस दोगुनी हो गई है। इस मुहिम ने सोशल मीडिया पर व्यापक चर्चा छेड़ दी, और कई अभिभावकों ने फीस वृद्धि और किताबों की कीमतों पर सवाल उठाए।
किताबों की कीमतें: एक और लूट का खेल
अब बात करते हैं स्कूल की किताबों की। क्या आपने कभी सोचा कि हर साल नई किताबें क्यों खरीदनी पड़ती हैं, भले ही सिलेबस वही हो? इसका जवाब है—स्कूलों और प्रकाशकों का गठजोड़। मध्य प्रदेश की जांच में सामने आया कि स्कूल और किताबों की दुकानें मिलकर “आपराधिक साजिश” रच रही हैं। कुछ स्कूल अपनी खुद की प्रकाशन कंपनियां चला रहे हैं और अभिभावकों को वहीं से किताबें खरीदने के लिए मजबूर कर रहे हैं।
एक औसत अभिभावक हर साल किताबों और स्टेशनरी पर 4,000 से 7,000 रुपये खर्च करता है। अगर ऑनलाइन संसाधनों की बात करें, तो इसके लिए 3,500 से 5,000 रुपये अतिरिक्त देने पड़ते हैं। कई स्कूल फर्जी ISBN नंबर वाली किताबें बेच रहे हैं, जो न तो मानक हैं और न ही जरूरी। इसके अलावा, स्कूलों का दावा है कि वे “डिजिटल लर्निंग” के लिए किताबें बदल रहे हैं, लेकिन ज्यादातर मामलों में यह सिर्फ मुनाफा कमाने का बहाना है।
सिस्टम में खामियां: कहां है गलती?
अब सवाल यह है कि इतने कोर्ट केस, नियमों, और हालिया खबरों के बावजूद यह समस्या क्यों बनी हुई है? आइए कुछ प्रमुख कारण देखें:
- नियमों का अभाव
भारत में स्कूल फीस को नियंत्रित करने के लिए कोई स्पष्ट राष्ट्रीय नीति नहीं है। कुछ राज्यों, जैसे गुजरात और तमिलनाडु, ने फीस की सीमा तय की है (उदाहरण के लिए, गुजरात में प्राइमरी स्कूलों के लिए 15,000 रुपये सालाना), लेकिन ज्यादातर राज्यों में यह स्कूलों की मर्जी पर छोड़ दिया गया है। - ऑडिट की कमी
दिल्ली में अभिभावकों ने शिकायत की कि स्कूल एक फीस स्ट्रक्चर सरकार को दिखाते हैं और अभिभावकों से दूसरा वसूलते हैं। कई स्कूल नकद में पैसे लेते हैं, खासकर वार्षिक आयोजनों या ट्रिप के लिए, जिसका कोई हिसाब नहीं होता। ऑडिट की प्रक्रिया या तो शुरू ही नहीं होती या फिर सालों तक लटकी रहती है। - सरकारी स्कूलों की खराब हालत
अगर सरकारी स्कूलों में शिक्षक, बुनियादी ढांचा, और गुणवत्ता बेहतर होती, तो अभिभावक निजी स्कूलों की ओर नहीं भागते। लेकिन हकीकत यह है कि सरकारी स्कूलों में अक्सर पुरानी इमारतें, अप्रशिक्षित शिक्षक, और संसाधनों की कमी होती है। - अभिभावकों की चुप्पी
कई अभिभावक शिकायत करने से डरते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि स्कूल उनके बच्चे को निशाना बना सकता है। तमिलनाडु के एक अभिभावक संगठन के अध्यक्ष अरुमैनाथन ने कहा, “अभिभावक शिकायत करते हैं, लेकिन फिर डर जाते हैं क्योंकि स्कूल बच्चे को टारगेट करता है।”
समाधान: आगे का रास्ता क्या है?
तो क्या इस लूट को रोका जा सकता है? बिल्कुल! लेकिन इसके लिए हमें सिस्टम और समाज दोनों में बदलाव लाने होंगे। कुछ सुझाव:
- राष्ट्रीय फीस नियंत्रण नीति
सरकार को एक स्पष्ट नीति बनानी चाहिए, जिसमें फीस वृद्धि की सीमा तय हो और स्कूलों को हर साल अपने खर्चों का ऑडिट सार्वजनिक करना पड़े। - किताबों की कीमतों पर नियंत्रण
NCERT जैसी संस्थाओं को सभी स्कूलों के लिए मानक किताबें उपलब्ध करानी चाहिए। स्कूलों को अपनी प्रकाशन कंपनियां चलाने या अभिभावकों को खास दुकानों से किताबें खरीदने के लिए मजबूर करने पर रोक लगनी चाहिए। - सरकारी स्कूलों में सुधार
अगर सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता बेहतर हो, तो निजी स्कूलों की मनमानी कम होगी। सरकार को शिक्षकों की भर्ती, प्रशिक्षण, और बुनियादी ढांचे पर निवेश करना चाहिए। - अभिभावक संगठनों को मजबूत करना
अभिभावकों को एकजुट होकर अपनी आवाज उठानी होगी। दिल्ली और मध्य प्रदेश में अभिभावक संगठनों ने कोर्ट में जाकर स्कूलों को जवाबदेह बनाया है। ऐसे और संगठनों को प्रोत्साहन देना चाहिए। - ऑडिट और पारदर्शिता
हर स्कूल को अपनी वेबसाइट पर फीस स्ट्रक्चर, खर्चों का ब्योरा, और ऑडिट रिपोर्ट प्रकाशित करनी चाहिए। अगर स्कूल नियम तोड़ते हैं, तो उनके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए, जैसे लाइसेंस रद्द करना।
निष्कर्ष: शिक्षा या धंधा?
दोस्तों, शिक्षा एक अधिकार है, न कि कोई लग्जरी। लेकिन जिस तरह निजी स्कूल मनमानी कर रहे हैं, वह मध्यम वर्ग की कमर तोड़ रहा है। सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट ने कई बार स्कूलों को फटकार लगाई है, और हालिया खबरें दिखाती हैं कि अभिभावक अब चुप नहीं बैठ रहे। लेकिन जब तक जमीन पर कार्रवाई नहीं होगी, यह लूट जारी रहेगी। हमें यह समझना होगा कि सिर्फ कोर्ट केस जीतने से काम नहीं चलेगा। सरकार, स्कूल, और अभिभावकों को मिलकर एक ऐसा सिस्टम बनाना होगा जहां शिक्षा सस्ती और सुलभ हो।
तो आप क्या सोचते हैं? क्या आपने भी स्कूल फीस या किताबों की कीमतों की वजह से परेशानी झेली है? कमेंट में अपनी कहानी शेयर करें, और इस लेख को अपने दोस्तों और परिवार के साथ शेयर करें ताकि ज्यादा से ज्यादा लोग इस मुद्दे के बारे में जागरूक हों। क्योंकि जब तक हम आवाज नहीं उठाएंगे, सिस्टम नहीं बदलेगा। मिलते हैं अगले लेख में, तब तक के लिए—जागते रहो, सवाल उठाते रहो!