अमीर तो हम भी हैं, लेकिन ब्रांड क्यों नहीं?
हर साल दुनिया के सबसे अमीर लोगों की लिस्ट सामने आती है, जिसमें अंबानी और अडानी जैसे भारतीय उद्योगपतियों के नाम टॉप 20 में शामिल होते हैं। लेकिन जब बात दुनिया के टॉप 50 मोस्ट वैल्यूएबल ब्रांड्स की होती है, तो एक भी भारतीय कंपनी उस लिस्ट में नहीं दिखती।
क्यों?
क्या भारतीय कंपनियों की कमाई कम है? बिल्कुल नहीं। तो फिर वजह क्या है कि भारत कोई Apple, Google, या Toyota जैसी ब्रांड क्यों नहीं बना पाया?
भारतीय कंपनियाँ कमाई में टॉप, ब्रांडिंग में फेल?
- भारत की बड़ी कंपनियाँ जैसे रिलायंस और अडानी ग्रुप अरबों रुपये कमा रही हैं।
- लेकिन उनका दायरा मुख्यतः भारतीय मार्केट तक सीमित है।
- वैश्विक ब्रांड वैल्यू की लिस्ट में Apple, Google, Microsoft, Amazon जैसी कंपनियाँ नजर आती हैं — एक भी भारतीय नाम नहीं।
👉 यानी कमाई है, लेकिन ब्रांड वैल्यू और वैश्विक पहचान नहीं है।
वजह #1: इनोवेशन की भारी कमी
- भारत में ज़्यादातर बिज़नेस मॉडल कॉपी-पेस्ट हैं।
- जो आइडिया पहले से विदेशों में सफल है, वही भारत में अपनाया जाता है।
- कंपनियाँ रिवर्स इंजीनियरिंग के जरिए प्रोडक्ट बनाती हैं लेकिन खुद का नया इनोवेटिव प्रोडक्ट नहीं लातीं।
इन आंकड़ों पर गौर करें:
देश | इनोवेशन पर खर्च (GDP का %) |
---|---|
भारत | 0.65% |
चीन | 2.4% |
अमेरिका | 3.4% |
साउथ कोरिया | 4.7% |
🧠 कम निवेश = कम इनोवेशन = कम वैश्विक पहचान
वजह #2: घरेलू बाज़ार से संतुष्टि
- भारत में 140 करोड़ की आबादी है, यहीं से भारी कमाई हो जाती है।
- कंपनियाँ सोचती हैं, “ग्लोबल जाने की क्या ज़रूरत?”
- यही मानसिकता उन्हें वैश्विक विस्तार से रोकती है।
वजह #3: रिस्कलेस कैपिटलिज्म
- भारतीय प्राइवेट कंपनियाँ जोखिम लेने से कतराती हैं।
- सरकार ने वर्षों तक घरेलू उद्योगों को प्रोटेक्शन दिया:
- हाई टैरिफ्स
- इम्पोर्ट सब्सटीट्यूशन
- विदेशी कंपनियों पर रोक
- नतीजा: कंपनियों को कभी असली प्रतियोगिता का सामना नहीं करना पड़ा।
📉 कोई कॉम्पटीशन नहीं = कोई इनोवेशन की ज़रूरत नहीं
वजह #4: R&D में प्राइवेट सेक्टर की भागीदारी बेहद कम
- भारत में R&D में 36% योगदान प्राइवेट सेक्टर का है।
- वही आंकड़ा अमेरिका जैसे देशों में 70% से अधिक है।
- सरकारी संस्थान इनोवेशन चला रहे हैं, लेकिन निजी क्षेत्र पीछे है।
उदाहरण: फार्मा और IT सेक्टर
फार्मा इंडस्ट्री:
- भारत “फार्मेसी ऑफ द वर्ल्ड” कहलाता है — बाय वॉल्यूम।
- लेकिन बाय वैल्यू, भारत 14वें स्थान पर है।
- कारण: हम जनरिक दवाएं बनाते हैं, इनोवेटिव नहीं।
IT इंडस्ट्री:
- सर्विस में कमाई है, लेकिन खुद का कोई ग्लोबल सॉफ्टवेयर प्रोडक्ट नहीं है।
- सारी कंपनियाँ केवल आउटसोर्सिंग और सपोर्ट सर्विसेज पर निर्भर हैं।
क्या कॉपी-पेस्ट हमेशा बुरा होता है?
बिलकुल नहीं।
चीन की कंपनियाँ, जैसे Xiaomi और Huawei ने भी शुरुआत कॉपी-पेस्ट से की थी।
लेकिन उन्होंने धीरे-धीरे इनोवेशन और डाइवर्सिफिकेशन के रास्ते पर कदम बढ़ाए:
- Xiaomi → स्मार्टफोन से लेकर IOT और ऑटो सेक्टर तक
- Huawei → टेलीकॉम से EV तक
👉 इसी विज़न की भारत को ज़रूरत है।
स्टार्टअप्स में उम्मीद की किरण
- भारत में भी कई स्टार्टअप्स नए इनोवेशन पर काम कर रहे हैं।
- लेकिन फंडिंग, गवर्नमेंट सपोर्ट और R&D में भरोसे की कमी है।
- निवेशक बड़ी कंपनियों को पैसे देते हैं, रिस्क लेने को तैयार नहीं।
आगे का रास्ता: समाधान क्या है?
- प्राइवेट कंपनियाँ इनोवेशन में निवेश करें
- ग्लोबल मार्केट में प्रतिस्पर्धा को अपनाएं, न कि डरें
- R&D पर GDP का 2-3% खर्च करें
- नई टेक्नोलॉजी को कमर्शियल बनाने में सरकार मदद करे
- स्टार्टअप्स को रिस्क कैपिटल मिले
निष्कर्ष: अमीरी काफी नहीं, ब्रांडिंग जरूरी है
भारत में पैसे की कोई कमी नहीं है। लेकिन वैश्विक पहचान केवल कमाई से नहीं, इनोवेशन और ग्लोबल विस्तार से बनती है।
जब तक हम “जमाई राजा” वाली सोच से बाहर नहीं निकलेंगे और रिस्क लेकर कुछ नया नहीं बनाएंगे, तब तक भारत की कंपनियाँ दुनिया की लीडरशिप में नहीं आ पाएंगी।