concept&Writer: Yoganand Shrivastva
कहते हैं किसी इंसान का नाम उसके व्यक्तित्व की पहचान होता है, लेकिन जब बात एक देश की हो, तो उसका नाम उसकी सभ्यता, इतिहास और आत्मा से जुड़ा होता है। और अगर वो देश भारत हो, तो बात और भी दिलचस्प हो जाती है। क्योंकि इस धरती को दुनिया ने अलग-अलग नामों से पुकारा — भारत, हिंदुस्तान, इंडिया, आर्यावर्त, जंबूद्वीप — और हर नाम अपने साथ एक कहानी लेकर आया। तो चलिए, लौटते हैं वक्त के पहियों को पीछे और समझते हैं कि आखिर कैसे ये देश एक नहीं, तीन-तीन नामों में बंधा हुआ है — भारत, हिंदुस्तान और इंडिया।
सबसे पहले बात करते हैं “भारत” की — जो हमारे संविधान में भी दर्ज है: “इंडिया, दैट इज भारत…” यानी भारत और इंडिया, एक ही राष्ट्र के दो नाम। लेकिन भारत नाम की जड़ें बहुत गहरी हैं। पुराणों, वेदों और महाकाव्यों में बार-बार इसका उल्लेख मिलता है। कहा जाता है कि भरत नाम का एक महान राजा था — पृथु के वंशज, जिनके शासन में यह धरती सुखी, समृद्ध और न्यायप्रिय थी। इसी कारण इस भूमि को भरत की संतानें कहा गया, और देश का नाम पड़ा “भारतवर्ष”। विष्णु पुराण में साफ लिखा है — “उत्तरं यत्समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम्। वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र सन्ततिः॥” यानी, समुद्र के उत्तर और हिमालय के दक्षिण में जो भूमि है, वह भारत कहलाती है, जहां भरत की संततियां बसती हैं। यानी भारत नाम सिर्फ एक राजा की याद नहीं, बल्कि उस विचार का प्रतीक है — जहां धर्म, ज्ञान और मानवता की परंपरा बसी हो।
अब आते हैं हिंदुस्तान पर। ये शब्द सुनते ही जैसे एक तहज़ीब आंखों के सामने घूम जाती है — मुगलों का दौर, सूफी संतों की कव्वालियां, लाल किले से गूंजता “सारे जहां से अच्छा…”। लेकिन “हिंदुस्तान” शब्द का जन्म भारत में नहीं, बल्कि बाहर हुआ। इसकी जड़ें भी “सिंधु” नदी से जुड़ी हैं — वही नदी जो आज पाकिस्तान में बहती है और सभ्यता की जननी मानी जाती है। फारसी लोग जब सिंधु नदी के पार के इलाके में आए, तो वे “स” ध्वनि को “ह” से उच्चारित करते थे। यानी “सिंधु” उनके लिए “हिंदु” बन गया। और जो भूमि सिंधु के पार थी, उसे वे कहने लगे “हिंदुस्तान” — यानी हिंदुओं की भूमि, सिंधु के उस पार का देश। यह नाम धीरे-धीरे फारसी ग्रंथों और अरब यात्रियों की रचनाओं में जगह बनाने लगा। अल-बिरूनी, जो 11वीं सदी में भारत आए थे, उन्होंने अपनी किताब में लिखा — “अल-हिंद” यानी भारत। बाद में दिल्ली सल्तनत और मुगल काल में यह नाम आम हो गया। “हिंदुस्तान” सिर्फ भौगोलिक पहचान नहीं रहा, बल्कि सांस्कृतिक पहचान बन गया — एक ऐसी भूमि जहां विविधता में एकता थी, जहां हिन्दू, मुसलमान, सिख, ईसाई सब साथ रहते थे। अकबर से लेकर शाहजहां तक, सबने इस देश को हिंदुस्तान कहकर पुकारा, और यही नाम लोगों के दिल में बस गया।
फिर आया “इंडिया” — जो इस देश का सबसे आधुनिक नाम बना। लेकिन दिलचस्प बात ये है कि इसकी जड़ें भी उसी “सिंधु” से जुड़ी हैं। यूनानी जब इस भूमि तक पहुंचे, उन्होंने भी सिंधु नदी को अपनी भाषा में “इंडोस” कहा। और जो लोग इंडोस के पार रहते थे, वो कहलाए “इंडोई” — यानी इंडियन। यही शब्द आगे चलकर “इंडिया” बन गया। यूनानियों के बाद रोमनों ने भी इसी शब्द को अपनाया। जब ब्रिटिश साम्राज्य ने इस उपमहाद्वीप पर शासन किया, तो उन्होंने अपने औपनिवेशिक दस्तावेजों में इस देश को “इंडिया” कहा। और इस तरह “इंडिया” एक राजनीतिक, अंग्रेज़ी और वैश्विक नाम बन गया। अंग्रेजों के जाने के बाद जब देश आज़ाद हुआ, तो संविधान सभा में बहस हुई कि देश का आधिकारिक नाम क्या होना चाहिए — “भारत” या “इंडिया”? दोनों पक्षों की अपनी दलीलें थीं। कुछ कहते थे कि “भारत” हमारी आत्मा है, हमारी जड़ों से जुड़ा है। तो कुछ मानते थे कि “इंडिया” अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचाना जाने वाला नाम है। अंत में समझौता हुआ — और संविधान में लिखा गया: “इंडिया, दैट इज भारत।” यानी दोनों नाम समान रूप से मान्य।
लेकिन भारत, हिंदुस्तान और इंडिया — ये सिर्फ नाम नहीं हैं, ये कालखंड हैं। भारत वह युग है जो वेदों, उपनिषदों और धर्म की बात करता है। हिंदुस्तान वह दौर है जहां तहज़ीब, सूफीमत, गंगा-जमुनी संस्कृति ने आकार लिया। और इंडिया वह युग है जिसने आधुनिकता, लोकतंत्र और विश्व मंच पर पहचान बनाई। अगर भारत आत्मा है, तो हिंदुस्तान उसका दिल है, और इंडिया उसका चेहरा — तीनों मिलकर इस देश की असली पहचान बनाते हैं।
कहते हैं, हर नाम की अपनी लय होती है। “भारत” कहते ही एक गर्व, एक अपनापन महसूस होता है। “हिंदुस्तान” सुनते ही लिपियों, भाषाओं, कविताओं और रागों की खुशबू आती है। “इंडिया” सुनते ही टेक्नोलॉजी, आधुनिकता और वैश्विक पहचान की छवि उभरती है। यही तो खूबसूरती है इस देश की — एक ही मिट्टी से इतने रूप, इतनी परतें।
इतिहासकारों के मुताबिक, इस देश को और भी नामों से जाना गया — जंबूद्वीप, जिसका मतलब है जामुनों से भरा विशाल द्वीप; आर्यावर्त, यानी आर्यों की भूमि; भोजभूमि, कर्मभूमि, देवभूमि — हर नाम में एक नया अर्थ, एक नई दृष्टि। तिब्बती इसे ग्यागर कहते थे, चीनी इसे तियांजु या येंदु — और सबकी नजर में यह भूमि कुछ न कुछ खास थी। यानी दुनिया के हर कोने से जब कोई इस देश की ओर देखता था, तो उसे कुछ अलग दिखाई देता था — कभी ज्ञान की भूमि, कभी रहस्यों की, कभी अध्यात्म की।
तो क्या एक देश के कई नाम होना गलत है? शायद नहीं। क्योंकि ये नाम इस देश की विविधता का प्रमाण हैं। यहां हर युग ने अपनी छाप छोड़ी — किसी ने इसे “भारत” कहा और धर्म की भूमि माना, किसी ने “हिंदुस्तान” कहा और संस्कृति की भूमि, और किसी ने “इंडिया” कहा और आधुनिकता की भूमि। लेकिन इन सबके बीच जो बात नहीं बदली, वो है इस देश की आत्मा — जो हर नाम में बसती है, हर युग में जीती है।
आज जब हम अपने देश को “भारत” कहकर संबोधित करते हैं, तो उसमें परंपरा की गूंज होती है; जब “हिंदुस्तान” कहते हैं, तो उसमें तहज़ीब की मिठास होती है; और जब “इंडिया” कहते हैं, तो उसमें आत्मविश्वास और आधुनिकता की चमक होती है। तीनों नाम एक ही धरती की तीन परतें हैं — जो मिलकर बनाते हैं उस देश को, जिसे दुनिया सलाम करती है। और यही भारत की खूबसूरती है — नाम चाहे जो भी हो, आत्मा एक है।






 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		 
		