कोल्हापुरी चप्पल विवाद: बॉम्बे हाईकोर्ट में जनहित याचिका, प्राडा और कडुना केली से मुआवजे की मांग

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BY: Yoganand Shrivastva

भारत की पारंपरिक विरासत का प्रतीक मानी जाने वाली कोल्हापुरी चप्पल के डिज़ाइन की नकल को लेकर अब मामला बॉम्बे हाईकोर्ट तक पहुंच चुका है। प्रसिद्ध इटालियन फैशन ब्रांड प्राडा और उसके सहयोगी ब्रांड कडुना केली पर भारतीय सांस्कृतिक धरोहर का व्यावसायिक दोहन करने का आरोप लगा है। इस संदर्भ में हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की गई है, जिसमें इन कंपनियों से मुआवजे की मांग की गई है।

याचिका का उद्देश्य और मुख्य तर्क

यह याचिका अधिवक्ता गणेश हिंगमिरे द्वारा दायर की गई है, जिसमें अंतरराष्ट्रीय फैशन ब्रांड्स के खिलाफ सख्त कदम उठाने की अपील की गई है। उनका कहना है कि ये कंपनियां भारतीय पारंपरिक डिजाइनों जैसे बंधनी, ब्लॉक प्रिंटिंग, शरारा, साड़ी और कोल्हापुरी चप्पल की नकल कर वैश्विक मंच पर उसे अपने नाम से बेचती हैं — बिना किसी कानूनी या नैतिक अनुमति के।

हिंगमिरे की याचिका में यह भी कहा गया है कि कोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए ताकि GI (Geographical Indication) टैग वाले उत्पादों की सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके। याचिका में एक मॉडल के रूप में सह-ब्रांडिंग, क्षमता निर्माण और कारीगरों के साथ सहयोग की मांग की गई है जिससे कि वास्तविक लाभ उन हाथों तक पहुंचे जो इन डिजाइनों को पीढ़ियों से संजोते आए हैं।


प्राडा का बयान और सफाई

प्राडा ने शुरुआत में इस मुद्दे पर चुप्पी साधे रखी, लेकिन सोशल मीडिया पर भारी विरोध और आलोचना के बाद 27 जून 2025 को कंपनी ने महाराष्ट्र चैंबर ऑफ कॉमर्स (MACCIA) को पत्र लिखकर यह स्वीकार किया कि उनके टो रिंग सैंडल कलेक्शन का डिज़ाइन कोल्हापुरी चप्पलों से प्रेरित है। प्राडा के CSR हेड लोरेंजो बर्टेली ने यह भी कहा कि उनका डिज़ाइन अभी विकास के शुरुआती चरण में है और कंपनी भारतीय कारीगरों के साथ सहयोग के लिए तैयार है।


क्या है कोल्हापुरी चप्पल और क्यों है यह महत्वपूर्ण?

कोल्हापुरी चप्पल सिर्फ एक फुटवियर नहीं बल्कि भारत की सांस्कृतिक और कारीगरी परंपरा का जीवंत उदाहरण है। इसका निर्माण 12वीं शताब्दी से हो रहा है। महाराष्ट्र के राजा बिज्जल और समाज सुधारक बसवन्ना ने इसे बढ़ावा दिया था। बाद में छत्रपति शाहू महाराज के समय में इसका व्यवसायीकरण हुआ।

इस चप्पल को बनाने में वनस्पति टैनिंग तकनीक का उपयोग किया जाता है। इसे पूरी तरह से हाथ से तैयार किया जाता है और इसमें कील या सिंथेटिक तत्वों का कोई प्रयोग नहीं होता। यह चप्पल महाराष्ट्र के कोल्हापुर, सांगली, सतारा, सोलापुर और कर्नाटक के बेलगावी, धारवाड़, बागलकोट में बनाई जाती है।


विवाद क्यों हुआ?

प्राडा ने अपने 2026 के स्प्रिंग/समर मेन्सवेयर शो में जिस “टो रिंग सैंडल” को प्रदर्शित किया, वह हूबहू कोल्हापुरी चप्पल जैसी दिख रही थी। लेकिन, न तो इसमें भारत का कोई ज़िक्र किया गया और न ही कारीगरों को श्रेय। प्राडा की इन सैंडल्स की कीमत ₹1 लाख से ₹1.2 लाख के बीच रखी गई, जबकि भारत में यही चप्पल ₹300 से ₹1500 में मिलती है।


क्या कहती है याचिका?

जनहित याचिका में कोर्ट से यह आग्रह किया गया है कि:

  • प्राडा और अन्य अंतरराष्ट्रीय कंपनियों को GI टैग वाले भारतीय डिजाइनों की नकल करने से रोका जाए।
  • ऐसी नकल को कानूनी रूप से दंडनीय अपराध घोषित किया जाए।
  • कोल्हापुरी चप्पल जैसे पारंपरिक डिज़ाइनों की रक्षा के लिए स्पष्ट नीति बनाई जाए।
  • भारतीय कारीगरों को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता और लाभ दिया जाए।

कोल्हापुरी चप्पल सिर्फ एक परंपरा नहीं, बल्कि भारत की पहचान है। ऐसे में यदि कोई वैश्विक ब्रांड उसे अपने नाम से बेचता है, तो यह न केवल आर्थिक अन्याय है बल्कि सांस्कृतिक अस्मिता का भी हनन है। यह याचिका ऐसे सभी मामलों के लिए एक मिसाल बन सकती है और भारतीय शिल्पकारों के अधिकारों को वैश्विक स्तर पर स्थापित करने की दिशा में महत्वपूर्ण कदम साबित हो सकती है।

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