गुजराती व्यापारी पर हमला: क्या ठाकरे फिर पुरानी राजनीति पर लौट रहे हैं?
लेख: विजय नंदन
महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर ‘मराठी बनाम गैर-मराठी’ विमर्श की ओर बढ़ती दिख रही है। हाल ही में मुंबई में एमएनएस कार्यकर्ताओं द्वारा एक गुजराती कारोबारी की पिटाई की गई। उसका अपराध सिर्फ इतना था कि उसने सवाल कर लिया—”क्या मराठी बोलना ज़रूरी है?” इस एक घटना ने न केवल भाषा की असहिष्णुता पर सवाल खड़े किए हैं, बल्कि यह भी संकेत दिया है कि ठाकरे परिवार एक बार फिर “मराठी मानुष” की भावना को राजनीतिक जमीन की पुनर्प्राप्ति का माध्यम बना रहा है।
उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे, जिनका कभी शिवसेना और एमएनएस के रूप में एक आक्रामक ‘मराठीवादी’ चेहरा था, अब पुनः एकजुट होते दिख रहे हैं। क्या यह पुनर्मिलन महज़ एक राजनीतिक संयोग है या सुनियोजित रणनीति, यह समय बताएगा। लेकिन हालात यह इशारा जरूर कर रहे हैं कि आगामी स्थानीय निकाय चुनावों में ‘मराठी पहचान’ एक बड़ा चुनावी मुद्दा बन सकता है।
ठाकरे परिवार की रणनीति: भावनात्मक कार्ड या राजनीतिक मजबूरी?
महाराष्ट्र में बीते कुछ वर्षों से ठाकरे परिवार लगातार राजनीतिक हाशिए पर जाता रहा है। उद्धव ठाकरे की शिवसेना अब दो फाड़ हो चुकी है। एक तरफ एकनाथ शिंदे हैं जो भाजपा के साथ सत्ता में हैं, तो दूसरी ओर उद्धव की टीम शिवसेना (उद्धव गुट) के नाम से जूझ रही है।
राज ठाकरे की एमएनएस की स्थिति और भी कमजोर रही है। कुछ सीटें और भावनात्मक भाषणों के सिवा पार्टी का जनाधार काफी सिकुड़ चुका है। ऐसे में मराठी अस्मिता, भाषा और पहचान के मुद्दों को फिर से हवा देना—एक राजनीतिक जीवनरेखा की तरह देखा जा सकता है।

क्या गैर-मराठियों को निशाना बना रहे हैं?
भाषा के नाम पर हिंसा, खासकर जब वो व्यवस्थित और संगठन आधारित हो, तो इसे सिर्फ ‘स्थानीय आक्रोश’ नहीं कहा जा सकता। गुजरातियों, उत्तर भारतीयों, और दक्षिण भारतीयों पर पहले भी हमले हो चुके हैं, और अब फिर उसी दिशा में घटनाएं बढ़ रही हैं।
क्या यह सिर्फ संयोग है कि जैसे ही ठाकरे परिवार एक मंच पर आता दिख रहा है, वैसे ही गैर-मराठी समुदाय को निशाना बनाए जाने की खबरें आने लगती हैं? या फिर यह जानबूझकर रची जा रही राजनीतिक पिच है, जिसमें ‘बाहरी’ को ‘दुश्मन’ बनाकर वोट हासिल किए जाएं?
मराठी मानुष किसके साथ?
यह सवाल जितना पुराना है, उतना ही प्रासंगिक भी। 1960 के दशक में इसी मुद्दे पर शिवसेना का जन्म हुआ था। बाल ठाकरे ने मराठी युवाओं को नौकरियों और पहचान के लिए संगठित किया। लेकिन वर्तमान समय में मराठी समाज उतना भावनात्मक नहीं रहा। आज वह शिक्षा, रोजगार, महंगाई, शहरी विकास और कानून-व्यवस्था जैसे मुद्दों पर सोचता है।
ठाकरे परिवार के लिए असली चुनौती यही है—क्या वो मराठी अस्मिता के भाव को फिर से वैसा ही जागृत कर पाएंगे जैसा कभी बाल ठाकरे ने किया था? या फिर बदलते महाराष्ट्र में यह मुद्दा अब अप्रासंगिक हो चुका है?
क्या यह राजनीति चलेगी?
स्थानीय निकाय चुनाव नजदीक हैं। मुंबई, ठाणे, नासिक, पुणे जैसे नगर निगमों पर राजनीतिक दलों की नज़र है। यहां मराठी मतदाता अब भी बड़ी भूमिका निभाते हैं। ठाकरे परिवार शायद इन्हीं इलाकों में ‘मराठी पहचान’ की आंधी खड़ी कर वापसी की राह खोज रहे हैं। लेकिन भाजपा और शिंदे गुट के पास सत्ता, संगठन और संसाधन हैं। कांग्रेस और एनसीपी (शरद पवार गुट) भी अपने कोर वोट बैंक को साधने की कोशिश में हैं।
कुछ और अहम सवाल जो उठ रहे हैं:
- क्या ठाकरे परिवार की ‘मराठी कार्ड’ रणनीति, युवाओं को भावनात्मक रूप से जोड़ पाएगी या आज की पीढ़ी इसे पुराना फार्मूला मानेगी?
- क्या हिंदी भाषा, गुजराती व्यापारी और उत्तर भारतीयों पर हमले महाराष्ट्र की विविधता को चोट नहीं पहुंचाएंगे?
- क्या यह सब शहरी निकायों में बढ़ते बीजेपी प्रभाव के डर से उठाया गया मुद्दा है?
- क्या यह रणनीति मुंबई में शिवसेना की खोई हुई सत्ता को वापस दिला सकेगी?
महाराष्ट्र की राजनीति एक बार फिर निर्णायक मोड़ पर है। ठाकरे परिवार एक बार फिर अपनी जड़ों की ओर लौटता दिख रहा है, लेकिन यह वापसी आसान नहीं होगी। ‘मराठी बनाम गैर-मराठी’ का मुद्दा जरूर पुराना है, लेकिन जनता अब पुराने नारों के बजाय नई समस्याओं का समाधान चाहती है। अगर ठाकरे परिवार अपनी राजनीति को सिर्फ मराठी अस्मिता तक सीमित रखेगा, तो हो सकता है कि उन्हें संजीवनी मिलने के बजाय, उनका शेष राजनीतिक वजूद भी दांव पर लग जाए।
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