तिब्बत के धर्मगुरु, भारत के मेहमान: क्यों अपना घर छोड़ भारत आ गए थे दलाई लामा?

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BY: Yoganand Shrivastva

दलाई लामा — एक ऐसा नाम जो सिर्फ बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए शांति और करुणा का प्रतीक है। 6 जुलाई 2025 को यह महान आध्यात्मिक गुरु अपना 90वां जन्मदिन मनाएंगे। लेकिन बहुत से लोग आज भी यह सवाल करते हैं कि तिब्बत का रहने वाला एक धर्मगुरु भारत में क्यों बस गया? आखिर उन्हें अपनी धरती छोड़ने की ज़रूरत क्यों पड़ी? आइए जानते हैं उस दर्दनाक और ऐतिहासिक कहानी को, जिसने उन्हें निर्वासन की ओर धकेल दिया।


कौन हैं दलाई लामा?

दलाई लामा तिब्बत के आध्यात्मिक और सांस्कृतिक जीवन का सर्वोच्च चेहरा होते हैं। वर्तमान दलाई लामा का असली नाम तेनज़िन ग्यात्सो है। उनका जन्म 6 जुलाई 1935 को उत्तरी तिब्बत के ताकस्तर गांव में हुआ था। महज 4 साल की उम्र में उन्हें 13वें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो का पुनर्जन्म माना गया और उन्हें 14वें दलाई लामा के रूप में मान्यता दी गई।


1950: तिब्बत पर चीन का हमला

1949 में चीन में कम्युनिस्ट सत्ता आने के बाद, 1950 में चीन की सेना ने तिब्बत पर कब्जा कर लिया। इस सैन्य कार्रवाई को लेकर दुनिया भर में नाराज़गी थी, लेकिन 1951 में चीन ने तिब्बत के साथ एक विवादास्पद समझौता कर उसे औपचारिक रूप से अपना हिस्सा बना लिया।


1959: विद्रोह, नरसंहार और भगदड़

चीन की दमनकारी नीतियों के खिलाफ 1959 में तिब्बत में जन आंदोलन हुआ। यह विरोध इतना व्यापक था कि बीजिंग सरकार घबरा गई और उसने ल्हासा (तिब्बत की राजधानी) पर सैन्य कार्रवाई कर दी। हजारों तिब्बतियों को मौत के घाट उतार दिया गया।
ऐसा खतरा मंडरा रहा था कि चीन दलाई लामा को बंदी बना सकता है। उन्हें चुप कराने की साजिशें तेज हो गई थीं।


17 मार्च 1959: गुप्त पलायन की शुरुआत

दलाई लामा ने भेष बदलकर अपनी मां, भाई-बहनों, निजी सहायकों और अंगरक्षकों के साथ ल्हासा से गुप्त रूप से पलायन किया। यह एक बेहद जोखिम भरी यात्रा थी, जिसमें हिमालय की बर्फीली चोटियों और ब्रह्मपुत्र नदी को पार करना पड़ा।


भारत की धरती पर पहला कदम

लगभग 13 दिनों की थकाऊ और जोखिम भरी यात्रा के बाद, 31 मार्च 1959 को दलाई लामा ने भारत में प्रवेश किया। वह अरुणाचल प्रदेश के तवांग पहुंचे, जहां उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी भारतीय सेना के असम राइफल्स ने संभाली।

3 अप्रैल 1959 को भारत सरकार ने आधिकारिक रूप से उन्हें शरण दी, जो एक ऐतिहासिक मानवीय फैसला था। इसके बाद दलाई लामा हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में बस गए, जो आज तिब्बती निर्वासित सरकार का मुख्यालय भी है।


धर्मशाला: छोटा तिब्बत

आज भी धर्मशाला का मैकलियोडगंज इलाका एक मिनी तिब्बत की तरह लगता है। हजारों तिब्बती परिवार यहां बस चुके हैं और अपनी संस्कृति, भाषा और धर्म को जीवित रखे हुए हैं। यहीं स्थित है त्सुगलाखांग परिसर, जो दलाई लामा का आधिकारिक निवास है।


भारत और दलाई लामा का विशेष रिश्ता

भारत ने न केवल दलाई लामा को शरण दी, बल्कि तिब्बती संस्कृति को संरक्षण भी दिया। यही कारण है कि आज भी दलाई लामा भारत को अपना दूसरा घर मानते हैं। उन्होंने दुनियाभर में भारत की अहिंसा, सहिष्णुता और करुणा की परंपरा का संदेश फैलाया है।


जब घर छिन जाए, तो शांति की तलाश होती है

दलाई लामा का भारत आना सिर्फ एक राजनीतिक घटनाक्रम नहीं था — यह एक संस्कृति और मानवाधिकारों की रक्षा का साहसिक निर्णय था। तिब्बत आज भी चीन के कब्जे में है, लेकिन दलाई लामा और उनका संदेश पूरी दुनिया में जीवित है — और भारत में उन्हें वह घर मिला, जहां से वे पूरी मानवता के लिए प्रेरणा बन सके।

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