धर्म बनाम सत्ता: करपात्री महाराज और कांग्रेस का विवादस्पद इतिहास !

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The controversial history of Karpatri Maharaj and Congress

संतों पर कांग्रेस MLA राजेंद्र कुमार सिंह का बयान, अखिलेश का गोशाला की दुर्गंध पर बयान

BY: Vijay Nandan

मध्य प्रदेश विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष राजेंद्र कुमार सिंह ने संतों को सांड की संज्ञा दी है, इस बयान पर संत समाज और हिंदू वादी पार्टी बीजेपी और अन्य दल हंगामा खड़ा रहे हैं। दूसरी तरफ सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने भी गोशाला में दुर्गंध वाला बयान दिया है। इस बयान पर भी हिंदूवादी नेता और सनातनी अखिलेश यादव पर हमलावर है। बीजेपी इसे कांग्रेस और सपा में हिंदुत्व के खिलाफ कुसंस्कार की संज्ञा दे रही है. संत समाज हमेशा से सत्ता के करीब रहा है। लेकिन कांग्रेस सत्ता से बाहर है इसलिए संतों का अपमान कर रही है। यही बात अखिलेश यादव पर भी लागू होती है। ऐसा विपक्ष आरोप लगा रहा है। इन बयानों के निहितार्थ धर्म और सत्ता के संबंधों की एक कहानी याद आती है. वो कहानी है पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और संत करपात्री जी महाराज के संबंधों को लेकर है. क्या है ये कहानी और क्या था करपात्री महाराज का कांग्रेस को श्राप पढ़िए..

एक ख्याति प्राप्त संत से कांग्रेस का रिश्ता

संत करपात्री महाराज, जिनका असली नाम हरि नारायण ओझा था, एक महान धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक हस्ती थे। उनका जन्म 1907 में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले के भटनी गांव में हुआ था। वे दशनामी संन्यासी परंपरा से जुड़े थे और दीक्षा के बाद उनका नाम हरिहरानंद सरस्वती पड़ा, लेकिन वे “करपात्री” नाम से लोकप्रिय हुए, क्योंकि वे अपने हाथों से भोजन करते थे। उन्होंने न केवल आध्यात्मिक क्षेत्र में योगदान दिया, बल्कि स्वतंत्रता संग्राम और आजाद भारत की राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका कांग्रेस और गांधी परिवार के साथ संबंध, खासकर 1966 के गो-रक्षा आंदोलन और गोपाष्टमी के संदर्भ में, इतिहास में विवादों के साथ दर्ज है। हाल ही में भाजपा सांसद अनंतकुमार हेगड़े के बयान ने इस मुद्दे को फिर से सुर्खियों में ला दिया।

प्रारंभिक जीवन और संन्यास

करपात्री महाराज का जीवन सादगी और अध्यात्म से ओतप्रोत था। 9 साल की उम्र में उनका विवाह हुआ, लेकिन 19 साल की उम्र में वे संन्यासी बन गए। 24 साल की उम्र में उन्होंने वाराणसी में स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती से संन्यास की दीक्षा ली और हिंदू धर्म के प्रचार में जुट गए।

धार्मिक और राजनीतिक योगदान

उन्होंने “मार्क्सवाद और रामराज्य” जैसे कई ग्रंथ लिखे और वेदांत व दर्शन में महारत हासिल की। 1948 में उन्होंने अखिल भारतीय राम राज्य परिषद की स्थापना की, जो हिंदू सिद्धांतों पर आधारित शासन की वकालत करता था। स्वतंत्रता संग्राम में भी वे सक्रिय रहे और नोआखली दंगों के पीड़ितों की मदद की।

कांग्रेस और गांधी परिवार के साथ रिश्ते

शुरुआत में करपात्री महाराज का कांग्रेस और गांधी परिवार से अच्छा संबंध था। जवाहरलाल नेहरू और इंदिरा गांधी उनके पास आशीर्वाद लेने आते थे। 1966 के चुनाव से पहले इंदिरा ने उनसे गो-हत्या पर प्रतिबंध का वादा किया था। हालांकि, सत्ता में आने के बाद यह वादा पूरा नहीं हुआ, जिससे उनके बीच तनाव बढ़ गया।

गोपाष्टमी और गो-रक्षा आंदोलन

गोपाष्टमी, गो-माता और श्रीकृष्ण को समर्पित पर्व, करपात्री महाराज के लिए खास था। 1966 में उन्होंने गो-हत्या के खिलाफ बड़ा आंदोलन शुरू किया। 7 नवंबर को दिल्ली में प्रदर्शन के दौरान पुलिस की गोलीबारी में कई संत मारे गए। इससे आहत करपात्री महाराज ने इंदिरा और कांग्रेस को श्राप दिया कि उनका वंश और पार्टी नष्ट हो जाएगी।

श्राप और गांधी परिवार: भाजपा सांसद का दावा

13 जनवरी 2024 को एक अखबार में प्रकाशित खबर के अनुसार, भाजपा सांसद अनंतकुमार हेगड़े ने दावा किया कि करपात्री महाराज के श्राप के कारण इंदिरा और संजय गांधी की मृत्यु हुई। उन्होंने कहा कि गोपाष्टमी के दिन संजय की विमान दुर्घटना में और इंदिरा की हत्या हुई। हालांकि, इसकी ऐतिहासिक पुष्टि नहीं है और यह लोककथाओं में ज्यादा प्रचलित है।

कांग्रेस की प्रतिक्रिया

कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने हेगड़े के बयान को उनकी संस्कृति का परिचायक बताया और इसे राजनीतिक स्टंट करार दिया।

करपात्री महाराज का जीवन धर्म और राजनीति के संगम का प्रतीक है। कांग्रेस और गांधी परिवार से उनका रिश्ता सहयोग से टकराव तक पहुंचा। गो-रक्षा आंदोलन और श्राप की कहानी आज भी चर्चा में है, जिसे हाल के बयानों ने फिर से उजागर किया। यह हमें धर्म और सत्ता के जटिल संबंधों पर विचार करने के लिए प्रेरित करता है।

ये भी पढ़िए :विवादित बयान: कांग्रेस विधायक ने साधु-संतों से की सांड की तुलना, आरोप- ‘भाजपा इन्हें खुला छोड़ती है

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