पूर्व सुप्रीम कोर्ट जज जस्टिस जे. चेलमेश्वर ने एक महत्वपूर्ण सवाल उठाया है—“अगर अदालतें संसद द्वारा बनाए गए कानून को असंवैधानिक घोषित कर सकती हैं, तो क्या वे राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदाधिकारियों को निर्देश नहीं दे सकतीं?”
यह टिप्पणी उन्होंने चेन्नई में ‘भारतीय संविधान की 75 वर्ष की यात्रा’ विषय पर एक व्याख्यान के दौरान की। इस कार्यक्रम का आयोजन राकेश लॉ फाउंडेशन और रोजा मुथैया रिसर्च लाइब्रेरी ने किया था।
“संविधान के 75 साल: जश्न नहीं, आत्मनिरीक्षण का वक्त”
जस्टिस चेलमेश्वर ने कहा कि संविधान के 75 साल पूरे होने पर जश्न मनाने के बजाय आत्मनिरीक्षण करने की जरूरत है। उन्होंने चिंता जताई कि:
- अब तक 100 से ज्यादा संविधान संशोधन हो चुके हैं।
- चुनाव जीतने के लिए उम्मीदवारों द्वारा पैसे की पागलखर्ची हो रही है।
- न्यायपालिका के लिए बजट कम होने के कारण मामलों का बोझ बढ़ता जा रहा है।
“अदालतों के पास निर्देश देने का अधिकार क्यों नहीं?”
जस्टिस चेलमेश्वर ने उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ के उस बयान पर प्रतिक्रिया दी, जहाँ उन्होंने सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्यपालों द्वारा रोके गए बिलों पर राष्ट्रपति को 3 महीने के भीतर फैसला लेने के निर्देश को चुनौती दी थी।
उन्होंने कहा—
“अगर न्यायाधीश संसद के बनाए कानून को रद्द कर सकते हैं, तो यह मानना कि वे किसी सार्वजनिक पदाधिकारी को उसके कर्तव्य का पालन करने का निर्देश नहीं दे सकते, संवैधानिक रूप से संदिग्ध है। मैं इस सिद्धांत से सहमत नहीं हूँ।”
मुख्य अतिथि और पैनल
इस कार्यक्रम में मद्रास हाईकोर्ट के जस्टिस जी.आर. स्वामीनाथन, कस्तूरी एंड संस के डायरेक्टर एन. रवि, और तमिलनाडु के हिंदू धार्मिक एवं चैरिटेबल ट्रस्ट मंत्री पी.के. सेकरबाबू ने भाग लिया। सेशन का संचालन रिटायर्ड जस्टिस जी.एम. अकबर अली ने किया।
निष्कर्ष
जस्टिस चेलमेश्वर का यह बयान संविधान के संतुलन और न्यायपालिका की भूमिका पर एक बड़ी बहस छेड़ता है। क्या अदालतें संवैधानिक पदाधिकारियों को निर्देश दे सकती हैं? यह सवाल आने वाले दिनों में गहन चर्चा का विषय बन सकता है।