रिपोर्टर: प्रशांत जोशी, कांकेर
हरेली, जिसे छत्तीसगढ़ का सबसे पहला लोकपर्व माना जाता है, सावन मास की कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन मनाया जाता है। यह त्यौहार खेती-किसानी की शुरूआत और हरियाली की शुरुआत का प्रतीक है।
ग्रामीण क्षेत्रों में इस पर्व का आयोजन पारंपरिक उत्साह, भक्ति और सामुदायिक एकता के साथ किया जाता है। इस दिन किसान खेतों में प्रयुक्त कृषि उपकरणों—जैसे हल, गैंती, कुदाली, रांपा, हसीया, आरी आदि—को साफ करके, हल्दी, दूध और चावल के घोल से पूजन करते हैं। इसके पश्चात ये उपकरण मुरूम बिछे आँगन में सजाकर मान्यता देवी-देवताओं को अर्पित किए जाते हैं।
शीशा पूजन के बाद परिवार में चीला रोटी, गुड़ का चीला और नारियल आदि का भोग भी लगाया जाता है। ग्रामीण महिलाएँ ठेठरी, खुरमी, पूरी-ठेठरी जैसे पारंपरिक व्यंजन बनाकर पड़ोसियों को आमंत्रित करती हैं।
इस पर्व में न केवल कृषि का महत्व होता है, बल्कि गाय-बैल समेत खेत की स्वास्थ्य वर्धन के लिए पूजा-अर्चना भी की जाती है। किसान पशुओं को नहलाकर सजाते हैं और उन्हें चारा-भोजन उपलब्ध कराते हैं। घरों की चौखट पर नीम की टहनियाँ लगाकर बुरी नजर से रक्षा की मान्यता निभाई जाती है।
हरेली का त्योहार बच्चों व युवाओं के लिए भी ख़ास होता है। गेड़ी दौड़, जलेबी दौड़, मटका फोड़, रस्सी-खिचड़ी, भंवरा खेल जैसी गतिविधियाँ ग्रामीण उत्सव को जीवंत बनाती हैं। गेड़ी—बांस से बनी खड़ी साधन—पर बच्चे दौड़ लगाते हैं, जिसे गहरे आनंद के साथ मनाया जाता है।
छत्तीसगढ़ सरकार भी इस लोकपर्व को संरक्षित करने के लिए प्रयासरत है। गांवों और स्कूलों में प्रतियोगिताओं का आयोजन किया जाता है। विजेताओं को पुरस्कृत किया जाता है ताकि खेलों व संस्कृति का मनोबल बढ़े। ‘छत्तीसगढ़िया ओलिंपिक्स’ जैसे आयोजन भी इसी समय शुरू किए जाते हैं, जो स्थानीय परंपराओं को केंद्र में रखकर ग्रामीण प्रतिभाओं को मंच प्रदान करते हैं।
हरेली का यह त्यौहार प्रकृति और मनुष्य के बीच जंगली संबंध को दर्शाता है। यह कृषक परिवारों की मेहनत, उनके विश्वास, उनकी आपसी सहयोग की भावना और छत्तीसगढ़िया लोकधर्म की समृद्ध परंपरा का पुरजोर प्रतिबिंब है। स्थानीय संस्कृति, पकवान, खेल, रीति-रिवाज और परंपरागत उपभोग इसे एक जीवंत और सार्थक पर्व बनाते हैं।