BY: Yoganand Shrivastva
बिहार की धरती पर एक बार फिर लोकतंत्र का महापर्व शुरू होने जा रहा है, जहाँ हर गली, हर चौपाल, हर पान की दुकान राजनीति की प्रयोगशाला बन चुकी है। 2025 का बिहार विधानसभा चुनाव सिर्फ एक राजनीतिक मुकाबला नहीं बल्कि सत्ता, सिद्धांत, जातीय समीकरण और जनता की उम्मीदों का संगम बन गया है। राज्य की राजनीति का मौसम जैसे-जैसे ठंडा होने की जगह गरमाने लगा है, वैसे-वैसे हर दल, हर नेता अपने पुराने रिश्तों, टूटे गठबंधनों और नए समीकरणों को साधने में जुट गया है। इस बार का चुनाव कई मायनों में ऐतिहासिक है—क्योंकि यह तय करेगा कि बिहार फिर से पारंपरिक राजनीति की राह पर चलता रहेगा या नई सोच और बदलाव की दिशा में कदम रखेगा। चुनाव आयोग ने तारीखों का ऐलान कर दिया है—6 और 11 नवंबर को मतदान, जबकि मतगणना 14 नवंबर को होगी। पूरे राज्य में 8.5 लाख से अधिक अधिकारी और कर्मचारी चुनावी प्रक्रिया में तैनात किए गए हैं ताकि मतदान निष्पक्ष और पारदर्शी हो। सुरक्षा के लिए हर बूथ पर पुलिस बल की तैनाती होगी, और संवेदनशील इलाकों में ड्रोन से निगरानी रखी जाएगी। इस बार आयोग ने 17 नई पहलें शुरू की हैं—जिनमें हर बूथ पर वेबकास्टिंग, उम्मीदवारों की तस्वीरें सहित EVM बटन, और दिव्यांग मतदाताओं के लिए विशेष सहायता जैसी व्यवस्थाएं शामिल हैं।
अब बात करते हैं उस राजनीतिक महागाथा की जो बिहार की गलियों से लेकर दिल्ली के सियासी गलियारों तक गूंज रही है। बिहार में इस बार तीन मुख्य मोर्चे हैं—एनडीए, महागठबंधन (INDIA गठबंधन) और जन सुराज पार्टी के नेतृत्व में बनता तीसरा विकल्प। एनडीए यानी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और जनता दल यूनाइटेड (जदयू) ने लंबे मंथन के बाद सीटों का बंटवारा तय किया है—दोनों दल 101-101 सीटों पर चुनाव लड़ेंगे, जबकि बाकी सीटें सहयोगी दलों हिंदुस्तानी अवाम मोर्चा (हम), लोजपा (रामविलास) और रालोसपा के हिस्से में आई हैं। एनडीए का चेहरा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और मुख्यमंत्री नीतीश कुमार हैं। मोदी का करिश्मा और नीतीश का प्रशासनिक अनुभव इस गठबंधन की सबसे बड़ी ताकत मानी जा रही है। भाजपा विकास, महिला सशक्तिकरण, और रोजगार के मुद्दों पर वोट मांग रही है, जबकि जदयू “सात निश्चय पार्ट 2” के वादों के साथ जनता तक पहुँच रही है—हर घर नल का जल, हर युवक को काम और हर परिवार को सुरक्षा का नारा दोहराया जा रहा है।
दूसरी ओर, महागठबंधन में राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी), कांग्रेस, वामपंथी दल और कुछ क्षेत्रीय संगठन शामिल हैं। आरजेडी के युवा नेता तेजस्वी यादव इस बार भी विपक्ष का चेहरा हैं। तेजस्वी अपने चुनावी भाषणों में बेरोजगारी, महंगाई, शिक्षा और पलायन को केंद्र में रख रहे हैं। वे लगातार कह रहे हैं कि “बिहार में सरकार नहीं, ठहराव है; अब बदलाव चाहिए।” कांग्रेस भी इस बार नए जोश में है, हालांकि सीटों के बंटवारे को लेकर महागठबंधन में तनाव की खबरें हैं। वाम दल सीमांचल और भोजपुर जैसे इलाकों में अपनी पारंपरिक पकड़ बनाए हुए हैं, और किसान-मजदूर वर्ग को साधने में जुटे हैं। महागठबंधन का सबसे बड़ा मुद्दा है—“नीतीश सरकार के खिलाफ जन असंतोष” और “मोदी सरकार की नीतियों का विरोध।”
तीसरा मोर्चा प्रशांत किशोर की जन सुराज पार्टी (JSP) है, जिसने राजनीति में नई बयार ला दी है। पीके यानी प्रशांत किशोर, जो कभी भाजपा और कांग्रेस दोनों के रणनीतिकार रह चुके हैं, अब जनता के बीच अपने “जन संवाद यात्रा” के ज़रिए एक अलग किस्म की राजनीति पेश कर रहे हैं। उनका कहना है—“बिहार को नेता नहीं, नीति चाहिए।” जन सुराज पार्टी ने एलान किया है कि वह सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ेगी और प्रत्याशियों का चयन जनता के सुझावों से करेगी। युवाओं और शिक्षित वर्ग में उनकी अपील बढ़ रही है, हालांकि ग्रामीण क्षेत्रों में उनकी पकड़ अभी सीमित है। इसके बावजूद उनका अभियान पारंपरिक राजनीति को चुनौती देता दिख रहा है।
अब बात करें चुनावी मुद्दों की—तो बेरोजगारी, स्थानीय विकास, कृषि संकट, स्वास्थ्य व्यवस्था, महिलाओं की सुरक्षा और शिक्षा की गुणवत्ता प्रमुख एजेंडे हैं। बिहार में पिछले एक दशक में औद्योगिक विकास की गति धीमी रही है, जिससे पलायन की समस्या और गहरी हुई है। विपक्ष इसे सरकार की सबसे बड़ी नाकामी बता रहा है, जबकि एनडीए दावा कर रहा है कि केंद्र और राज्य ने मिलकर बिहार में बुनियादी ढांचा, सड़कें, पुल, और बिजली की स्थिति को अभूतपूर्व रूप से सुधारा है। हर पार्टी अपने घोषणापत्र में युवाओं को लुभाने की कोशिश कर रही है—कहीं फ्री लैपटॉप का वादा है, तो कहीं सरकारी नौकरी के लिए पारदर्शी परीक्षा व्यवस्था की बात।
जातीय समीकरण की बात करें तो यह बिहार चुनाव का सबसे निर्णायक पहलू है। यादव, कुर्मी, कोइरी, ब्राह्मण, राजपूत, मुसलमान और दलित—हर वर्ग इस बार भी राजनीति का केंद्र है। आरजेडी यादव-मुस्लिम गठजोड़ पर भरोसा कर रही है, जबकि जदयू कुर्मी-कैथोलिक और महादलित वोट बैंक को अपने साथ रखने की कोशिश में है। भाजपा ऊंची जातियों और शहरी वोटरों पर निर्भर है, वहीं जन सुराज पार्टी युवाओं और शिक्षकों को अपना समर्थन आधार बनाने में लगी है। सीमांचल में AIMIM भी मुकाबले को दिलचस्प बना रही है, जो मुस्लिम वोटों में सेंध लगाने की कोशिश कर रही है।
अब अगर बात करें संभावित सत्ता समीकरणों की, तो यह कहना अभी जल्दबाज़ी होगी कि कौन स्पष्ट बहुमत के करीब पहुंचेगा। लेकिन मौजूदा संकेत बताते हैं कि एनडीए और महागठबंधन के बीच कांटे की टक्कर होगी। अगर जदयू और भाजपा में मतभेद नहीं उभरे तो एनडीए सत्ता में वापसी कर सकता है। वहीं अगर तेजस्वी यादव युवाओं और बेरोजगारी के मुद्दे पर जनसमर्थन जुटा लेते हैं तो महागठबंधन बड़ा उलटफेर कर सकता है। जन सुराज पार्टी तीसरा मोर्चा बनकर किसी भी गठबंधन के लिए “किंगमेकर” की भूमिका निभा सकती है—अगर उसे 15 से 25 सीटें भी मिल जाती हैं तो सरकार बनाने का गणित बदल सकता है।
त्योहारी सीजन और सुरक्षा व्यवस्था को देखते हुए दिल्ली से लेकर पटना तक सुरक्षा एजेंसियाँ सतर्क हैं। चुनाव आयोग ने फोर्स की तैनाती बढ़ा दी है। संवेदनशील इलाकों में अतिरिक्त केंद्रीय बल भेजे गए हैं। इस बार हर बूथ पर कम से कम दो सुरक्षाकर्मी मौजूद रहेंगे और सीसीटीवी से निगरानी की जाएगी। सोशल मीडिया पर गलत सूचना फैलाने वालों पर सख्त कार्रवाई की जा रही है।
बिहार की राजनीति की खूबी यह है कि यहाँ चुनाव सिर्फ वोटिंग नहीं, बल्कि एक भावनात्मक और सांस्कृतिक पर्व बन जाता है। गाँवों में चौपालों पर बहसें होती हैं, महिलाएँ अपने अनुभव साझा करती हैं, नौजवान रोजगार और पलायन पर चर्चा करते हैं, और बुजुर्ग अब भी लालू-नीतीश के पुराने दिनों को याद करते हैं। पटना की गलियों में पोस्टर-बैनर, भभुआ से लेकर मधेपुरा तक रोड शो और रैलियाँ चल रही हैं। हर दल अपने नेता को “बिहार का बेटा” बताने में जुटा है।
अंततः इस कहानी का नायक कोई दल नहीं बल्कि जनता ही होगी, जो मतदान के दिन अपने ईवीएम बटन से इतिहास लिखेगी। इस चुनाव में वोट सिर्फ सत्ता बदलने का नहीं, बल्कि बिहार की दिशा तय करने का होगा—क्या राज्य फिर से विकास और सुशासन के नाम पर एनडीए को मौका देगा, या बेरोजगारी और असमानता के मुद्दे पर महागठबंधन को सत्ता सौंपेगा, या फिर नई राजनीति के सपने के साथ जन सुराज जैसी ताकतों को उभारेगा—यह आने वाला नवंबर तय करेगा। बिहार की मिट्टी में एक बार फिर राजनीतिक महक घुल चुकी है, और लोकतंत्र का यह उत्सव बताने वाला है कि जनता की आवाज़ अब भी सबसे बुलंद है। यही बिहार की असली कहानी है—जहाँ सत्ता बदलती रहती है, पर लोकतंत्र की आस्था हमेशा कायम रहती है।