concept&wirter; Yoganand Shrivastva
दिल्ली के किसी एयरपोर्ट पर बैठा एक यात्री, जिसके हाथ में मोबाइल है, आंखों में नींद नहीं, और स्क्रीन पर बार-बार वही शब्द चमक रहा है—कैंसिल्ड, कैंसिल्ड, कैंसिल्ड—उसे शायद यह नहीं पता कि उसकी यह उड़ान सिर्फ तकनीकी खराबी की वजह से नहीं, बल्कि छह साल पुराने एक कानूनी झगड़े, पायलटों की थकान, सुरक्षा नियमों की राजनीति, और एक एयरलाइन की रणनीतिक चुप्पी की कीमत चुका रही है; 5 दिसंबर 2025 को जब देश भर में इंडिगो की करीब 600 उड़ानें एक साथ रद्द हुईं, उससे एक दिन पहले 550 और उससे पहले 200 से ज्यादा उड़ानें पहले ही ज़मीन पर बैठ चुकी थीं, तब यह साफ हो गया कि यह कोई अचानक आई मुसीबत नहीं, बल्कि बरसों से सुलग रही चिंगारी का धमाका है, जिसकी जड़ें साल 2019 में तब पड़ी थीं जब नागरिक उड्डयन महानिदेशालय ने पायलटों की ड्यूटी और आराम से जुड़े नियमों में बदलाव करते हुए रात की उड़ानों की सीमा बढ़ा दी थी और आराम का समय घटा दिया था, पायलट यूनियनों ने तभी खतरे की घंटी बजा दी थी कि थका हुआ पायलट सीधे तौर पर यात्रियों की जान से जुड़ा जोखिम है

मामला अदालत पहुंचा, नियम बदले, फिर रुके, फिर बदले, फिर टले, फिर चरणबद्ध लागू करने की योजना बनी, 8 जनवरी 2024 को संशोधित नियम आए, एयरलाइनों को जून 2024 तक का समय मिला, एयरलाइनों ने कहा इतने कम समय में पायलट कहां से लाएं, विमान कहां से उड़ाएं, किराया कहां तक बढ़ाएं, डीजीसीए ने बात सुनी, नियम फिर होल्ड हुए, पायलट यूनियन फिर कोर्ट गई, 20 फरवरी 2025 को डीजीसीए ने हलफनामा दिया कि 22 में से 15 नियम जुलाई 2025 से और बाकी नवंबर 2025 से लागू होंगे, 24 फरवरी को हाई कोर्ट ने हरी झंडी दे दी, आदेश हुआ कि साप्ताहिक आराम 36 से बढ़ाकर 48 घंटे होगा, रात की ड्यूटी आधी रात से सुबह 6 बजे तक मानी जाएगी, और रात में सीमित लैंडिंग होंगी, सात अप्रैल 2025 को डीजीसीए के आश्वासन के बाद केस बंद हुआ, और आखिरकार नवंबर 2025 से फ्लाइट ड्यूटी टाइम लिमिटेशन यानी एफडीटीएल नियम पूरी ताकत से लागू हो गए, अब पायलट रात 12 से सुबह 6 के बीच सीमित लैंडिंग करेगा, हफ्ते में दो से ज्यादा रात की लैंडिंग नहीं होंगी, और 48 घंटे का पूरा साप्ताहिक आराम अनिवार्य होगा—यानी जो भी हुआ, वह सीधे तौर पर उड़ानों की संख्या घटाने वाला था, क्योंकि अब वही पायलट पहले जितना आसमान नहीं नाप सकता था, लेकिन यहीं से असली कहानी में ट्विस्ट आता है, क्योंकि इस पूरे छह साल के दौरान, जब अदालत में तारीखें पड़ रही थीं, जब नियम टल रहे थे, बदल रहे थे

लागू होने की समयसीमा तय हो रही थी, तब इंडिगो जैसी देश की सबसे बड़ी एयरलाइन क्या कर रही थी, सवाल यही है—क्या उसने पहले से पायलटों की भर्ती बढ़ाई, क्या उसने अतिरिक्त क्रू तैयार किया, क्या उसने वैकल्पिक शेड्यूलिंग मॉडल बनाया, या उसने यह सोचकर सब कुछ जैसे-तैसे चलने दिया कि शायद नियम फिर टल जाएं, और जब नवंबर 2025 में नियम सच में सख्ती से लागू हो गए तो अचानक उसे एहसास हुआ कि उसके पास इतने पायलट ही नहीं हैं कि वह अपने घोषित शेड्यूल के मुताबिक उड़ानें चला सके, नतीजा यह हुआ कि एक-एक करके उड़ानें कैंसिल होने लगीं, पहले 2 और 3 दिसंबर को 200 से ज्यादा, फिर 4 दिसंबर को 550, और 5 दिसंबर को करीब 600 उड़ानें, यानी आसमान में इंडिगो का जाल तो फैला था लेकिन उसे उड़ाने वाले थक चुके थे या नियमों में बंध चुके थे, और ज़मीन पर बैठे यात्रियों के लिए हर कैंसिलेशन एक नया सदमा बन गया—किसी की शादी छूट गई, किसी की नौकरी की जॉइनिंग, किसी का इलाज, किसी का इंटरव्यू—और एयरपोर्ट देखते-देखते शरणार्थी शिविर जैसा दिखने लगा, बच्चे फर्श पर सोते दिखे, बुज़ुर्ग कुर्सियों पर टूटते नजर आए, और स्टाफ के पास बस एक ही जवाब था—एफडीटीएल की वजह से उड़ान संभव नहीं है; यहीं से बहस का असली मोड़ शुरू हुआ कि क्या गलती नियमों की है, या नियमों की तैयारी न करने वाली एयरलाइन की, क्योंकि एफडीटीएल कोई अचानक रातों-रात लागू हुआ फरमान नहीं था, यह छह साल की कानूनी लड़ाई, दर्जनों बैठकों, कई हलफनामों और अदालत की सीधी निगरानी के बाद लागू हुआ सुरक्षा कवच था

जिसका मकसद पायलट की नींद और यात्री की जान दोनों को बचाना था, लेकिन इंडिगो पर यह सीधा आरोप लगा कि उसने जानबूझकर पर्याप्त भर्ती नहीं की, ताकि नियम लागू होते ही सिस्टम चरमराए और सरकार को मजबूरी में इन नियमों पर ढील देनी पड़े, और जैसे ही संकट चरम पर पहुंचा, वही हुआ भी—डीजीसीए को एफडीटीएल के आदेश को अस्थायी तौर पर रोकना पड़ा, ताकि उड़ानों की बाढ़ कुछ हद तक वापस लाई जा सके, यानी जिस नियम को लागू कराने के लिए पायलटों ने छह साल अदालत के चक्कर काटे, वही नियम यात्रियों की दुहाई देकर कुछ समय के लिए किनारे कर दिया गया, और सवाल वही रह गया कि क्या थका हुआ पायलट ज़्यादा खतरनाक है

या एयरपोर्ट पर फंसा हताश यात्री, उधर सरकार ने भी हाथ पर हाथ रखकर बैठना ठीक नहीं समझा, केंद्रीय उड्डयन मंत्री राम मोहन नायडू के स्तर पर एक जांच समिति बना दी गई कि आखिर इंडिगो की सेवाएं क्यों ढह गईं, कहां चूक हुई, किस स्तर पर योजना फेल हुई, और क्या यह सिर्फ नियमों की वजह से हुआ या प्रबंधन की लापरवाही से, लेकिन ज़मीन पर बैठा यात्री इन सब जांचों, हलफनामों और समितियों से बेपरवाह सिर्फ अपनी उड़ान पूछता रहा, और यही इस पूरी कहानी का सबसे कड़वा सच है कि आसमान की सुरक्षा के नाम पर बने नियम, अदालत की सख्ती, कंपनी की कारोबारी मजबूरियां और सरकार की प्रशासनिक धीमी चाल—इन सबके बीच सबसे सस्ता और सबसे बेबस वही यात्री साबित हुआ जिसने टिकट के पैसे दिए थे, समय पर पहुंचने का सपना देखा था, और अब टर्मिनल के कोने में बैठा अपने मोबाइल पर वही एक शब्द बार-बार देख रहा था—कैंसिल्ड।





