16 सितंबर 2022… ईरान में 22 वर्षीय महसा अमीनी की पुलिस हिरासत में मौत ने पूरी दुनिया को झकझोर दिया। महसा पर आरोप था कि वह अनिवार्य हिजाब कानून का पालन नहीं कर रही थीं। इस घटना ने ईरान में महिलाओं की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए।
महसा की मौत के बाद ईरान में बड़े पैमाने पर विरोध प्रदर्शन शुरू हुए, जिनका असर दुनिया तक पहुंचा। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने भी ईरानी सरकार से अपने ही नागरिकों पर हिंसा बंद करने की अपील की। बाइडन ने स्पष्ट कहा कि ईरान की महिलाओं को यह अधिकार मिलना चाहिए कि वे क्या पहनें और कैसे रहें।
जब ओबामा को अपनी ‘चुप्पी’ पर पछतावा हुआ
इसी दौरान अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा का भी बयान आया। उन्होंने 2009-10 में ईरान के ‘ग्रीन मूवमेंट’ का जिक्र करते हुए कहा कि उस समय सार्वजनिक तौर पर इस आंदोलन का समर्थन न करना उनकी गलती थी।
‘ग्रीन मूवमेंट’ की शुरुआत 2009 में ईरान के विवादित राष्ट्रपति चुनाव के बाद हुई थी, जब चुनाव में धांधली के आरोप लगे और लोग सड़कों पर उतर आए। यह पहला मौका नहीं था जब ईरानी जनता सड़कों पर आई हो। इससे पहले 1979 की इस्लामिक क्रांति ने भी ईरान की सत्ता को पूरी तरह बदल दिया था।
1979 की क्रांति और अधूरी आज़ादी
1979 में मोहम्मद रज़ा पहलवी को सत्ता से हटाकर अयातुल्ला खुमैनी के नेतृत्व में इस्लामिक शासन स्थापित हुआ। हालांकि, इस क्रांति के बाद भी महिलाओं के अधिकार और नागरिक स्वतंत्रता जैसे मुद्दे अधूरे ही रहे।
आज भी ईरान में महिलाओं की व्यक्तिगत आज़ादी, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और नागरिक अधिकारों पर सवाल उठते रहते हैं। और यही वह बुनियाद है, जो यह सोचने पर मजबूर करती है — क्या ईरान को भी भारत के डॉ. भीमराव अंबेडकर जैसा एक क्रांतिकारी नेता चाहिए?
जब भारत में अंबेडकर ने महिला अधिकारों के लिए लड़ाई लड़ी
11 अप्रैल 1947… भारत की संविधान सभा में डॉ. भीमराव अंबेडकर ने ‘हिंदू कोड बिल’ पेश किया। इस बिल के तहत:
- महिलाओं को पिता की संपत्ति में अधिकार
- महिलाओं को तलाक और गोद लेने का अधिकार
- जातिगत भेदभाव खत्म करने की कोशिश
बिल पेश होते ही देशभर में बवाल मच गया। कांग्रेस के भीतर ही विरोध शुरू हुआ, धार्मिक संगठनों ने प्रदर्शन किए। लेकिन अंबेडकर अपने इरादे पर अडिग रहे।
जब संसद में बिल रोका गया, तो अंबेडकर ने कानून मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया। बाद में नेहरू सरकार ने इस बिल को टुकड़ों में पास कराया, जिससे भारत में महिलाओं को बराबरी का कानूनी हक मिला।
अमेरिका का दोहरा चरित्र — आज़ादी की आड़ में ‘बम-बंदूक’ की राजनीति
अमेरिका अक्सर महिला अधिकार और लोकतंत्र की दुहाई देकर दूसरे देशों पर हमला करता है। उदाहरण:
- अफगानिस्तान (2001): तालिबान हटाने के नाम पर हमला, लेकिन दो दशक बाद भी लोकतंत्र अधूरा
- इराक (2003): ‘Weapons of Mass Destruction’ का बहाना, सत्ता पलटी गई, पर स्थिरता नहीं आई
- सीरिया: सिविल वॉर में बागियों को समर्थन देकर हस्तक्षेप
दिलचस्प बात ये है कि महिला अधिकारों का सबसे बड़ा झंडाबरदार बनने वाला अमेरिका खुद अपने देश में महिलाओं को पूरी आज़ादी नहीं दे सका।
अमेरिका में महिलाओं की स्थिति:
- अबॉर्शन पर रोक: अगस्त 2024 तक अमेरिका के 17 राज्यों में लगभग सभी प्रकार के गर्भपात पर पाबंदी
- राष्ट्रपति पद पर कोई महिला अब तक नहीं
- कई राज्यों में महिलाओं के अधिकारों पर लगातार बहस
ईरान की महिलाएं शिक्षित हैं, अब ज़रूरत है असली आज़ादी की
ईरान में महिलाओं की शिक्षा दर बताती है कि वे किसी से कम नहीं:
- 15 से 24 वर्ष की महिलाओं में साक्षरता दर: 98.9%
- STEM ग्रेजुएट्स में महिलाओं की हिस्सेदारी: लगभग 70%
इसका मतलब है कि ईरान में महिलाएं पढ़-लिखकर आगे बढ़ रही हैं। अब उन्हें सही मायनों में ‘फ्रीडम ऑफ चॉइस’ और ‘फ्रीडम ऑफ स्पीच’ की ज़रूरत है — ठीक वैसे ही जैसे भारत में अंबेडकर ने महिलाओं को दिलाया।
असली बदलाव भीतर से आता है, न कि बाहर से
इतिहास गवाह है कि बाहरी हस्तक्षेप, चाहे वह अमेरिका हो या कोई और ताकत, किसी देश में स्थायी सुधार नहीं ला सकता। सुधार तभी आते हैं जब देश के भीतर से नेतृत्व उठे — ऐसा नेतृत्व जो देश की ज़मीनी हकीकत समझता हो, जिसकी नीयत सुधार की हो।
ईरान में भी अगर महिलाओं और नागरिक अधिकारों को लेकर असली बदलाव चाहिए, तो वहां से ही कोई ‘भीमराव अंबेडकर’ जैसा नेता उठना होगा।
निष्कर्ष: सुधार के लिए ज़रूरी है स्थानीय नेतृत्व
दुनिया के किसी भी कोने में बदलाव लाने का असली रास्ता है — अंदरूनी सुधार, जनचेतना और जिम्मेदार नेतृत्व। अमेरिका जैसी ताकतें चाहे जितना हस्तक्षेप करें, सुधार तभी टिकाऊ होंगे जब खुद देशवासी अपनी लड़ाई लड़ेंगे।
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