concept & writer: Yoganand Shrivastva
बाबा बुल्ले शाह… नाम लेते ही मन में एक सूफी सुर बज उठता है — “मैं भी नाचूं मनाऊं सोने यार को, करूं न परवाह बुलेया…” यह सुर सिर्फ़ एक गीत नहीं, यह उस रूह का साज़ है जिसने अपने समय की सबसे सख़्त दीवारों को भी अपने प्रेम, करुणा और बग़ावत से हिला दिया था। बुल्ले शाह का जीवन किसी साधारण संत की कथा नहीं, बल्कि एक ऐसी रोशनी की दास्तान है जो अंधेरों के डर से कभी नहीं डरी। उनका जन्म सैयद अब्दुल्ला शाह क़ादरी के रूप में 1680 के आसपास पंजाब के पठानकोट ज़िले के ऊच गांव में एक सम्मानित और शरीफ़ सैयद परिवार में हुआ। खानदान इल्म वाला, शरीयत में गहराई वाला, और क़ुरान-हदीस की तालीम में रचा-बसा था। ऐसे घर में पैदा हुए बुल्ले शाह से उम्मीद थी कि वह फक़्त मौलवी या काज़ी बनेंगे, शरीयत की राह चलेंगे और खानदान की प्रतिष्ठा को बढ़ाएंगे। लेकिन नियति कुछ और ही लिख चुकी थी। बचपन में ही उनकी रूह में सवाल चिंगारी की तरह उठते—“कुदरत क्या है?”, “इंसान क्या है?”, “रब कहां है?”—और इन्हीं सवालों ने उनके कदम एक ऐसी दुनिया की ओर मोड़ दिए, जो उस समय के धार्मिक ठेकेदारों को मंज़ूर नहीं थी। जब बुल्ले शाह नौजवान हुए, वह क़ासूर आ गए, यहाँ उन्होंने खेती-बाड़ी भी की और इल्म भी। पर दिल को तृप्ति न होती, रूह बेचैन रहती। आख़िरकार, यह बेचैनी उन्हें उनके पीर, हजरत শাহ इनायत क़ादरी तक ले गई। इनायत साहब एक अराई (किसान जाति) थे। यह बात बुल्ले शाह के खून और खानदान, दोनों के लिए असहनीय थी—एक सैयद, वह भी सूफ़ी, किसी अराई को अपना गुरु बना ले! बुल्ले शाह ने कहा—“रूह का कोई जात नहीं होता।” समाज ने कहा—“यह गुनाह है।” बुल्ले शाह बोले—“अगर यह गुनाह है, तो मैं हर गुनाह करने को तैयार हूं जो मुझे अपने रब से मिला दे।”
यहीं से शुरू होती है वह बग़ावत जिसने उन्हें बुल्ले शाह बनाया—रवायतों से ऊपर, जात-बिरादरी की दीवारों से बाहर, और रूहानी आज़ादी की सबसे ऊँची उड़ान में। बुल्ले शाह के पीर शाह इनायत ने उन्हें सिखाया—“रब को मस्जिद-मंदिर में मत ढूंढ, वह तेरे भीतर है।” यही एक सीख उनके जीवन की क़िताब का पहला और अंतिम अध्याय बन गई। उन्होंने कलम उठाई और शेरों में वह सच कह दिया, जिसे कहने की हिम्मत बहुत कम लोग करते थे। जब उन्होंने कहा—“बुल्ला की jaana main kaun”—तो वह सिर्फ़ अपनी पहचान नहीं खो रहे थे, बल्कि पूरी दुनिया को आईना दिखा रहे थे कि हमारा ‘मैं’ ही सारे दुखों की जड़ है। बुल्ले शाह ने कहा कि रब किताबों में नहीं, इंसानियत में रहता है। मज़हब की दीवारें बनाकर जो लोग इंसानों को बांटते हैं—वह असल में रब से दूर जा रहे हैं। उनकी कविताएँ सख़्त मौलवियों को चुभतीं, मुल्लाओं को गुस्सा दिलातीं, और कट्टरपंथियों को डरातीं। उनकी बानी कहती—रब को पाओ तो मोहब्बत से, नफ़रत से नहीं; रब को बुलाना हो तो दिल साफ़ करो, दाढ़ी नहीं बढ़ाओ। बुल्ले शाह नाचते भी थे, गाते भी थे, और खिल्ली उड़ाते थे उन लोगों की जो मज़हब को हथियार बना लेते थे। इसी बग़ावती रूह ने उन्हें “विधर्मी” करार दिलवाया। खानदान ने त्याग दिया—“सैयद होकर अराई का शागिर्द? यह हमारी तौहीन है।” मुल्लाओं ने फतवा सुनाया—“यह शरीयत के खिलाफ़ है।” दरबारों ने दुत्कारा—“यह समाज बिगाड़ रहा है।” लेकिन बुल्ले शाह मस्त रहे—“मैं नहीं, मेरे भीतर की रब की आवाज़ बोलती है।”
उनके जीवन की एक मशहूर घटना है—जब उनके पीर शाह इनायत उनसे नाराज़ हो गए और बुल्ले शाह उनकी नाराज़गी मिटाने क़ासूर लौट आए। पीर की गली तक पहुँचे लेकिन दरवाज़ा बंद मिला। बुल्ले शाह साधारण इंसान नहीं थे, वह प्रेम के पागल थे। वह एक नाचनेवाली औरतों के समूह के बीच भेस बदलकर नाचते हुए पहुंचे और गाते रहे—“नाच नचावे जोगी दे नाल।” कहते हैं शाह इनायत उस प्रेम और समर्पण से पिघल गए और बुल्ले शाह को गले लगा लिया। यह घटना बताती है कि बुल्ले शाह की रूह के लिए इज्ज़त-ज़िल्लत, ऊँच-नीच, पाक-नापाक कुछ भी मायने नहीं रखता था—सिर्फ़ प्यार मायने रखता था।
उनकी इसी सोच ने उन्हें समाज के नियमों से बाहर खड़ा कर दिया। लोग उनके कलाम सुनते थे लेकिन उनकी राह नहीं समझ पाते थे। उनके दरबार में अमीर-गरीब, हिंदू-मुसलमान, जाट-अराई-सैयद सब एक ही चटाई पर बैठते थे। बुल्ले शाह कहते—“जाती-धर्म, अमीरी-गरीबी, ऊँच-नीच—सब भ्रम हैं, रब एक है और इंसान का दिल उसका घर।” बुल्ले शाह का असर इतना गहरा था कि उनके जिंदा रहते ही हजारों लोग उनके शिष्य बन गए। लेकिन यही उनकी लोकप्रियता, उनकी निर्भीक सच्चाई और समाज के ढोंगों पर हमला, कई लोगों के लिए खतरा बन गई। कट्टरपंथियों ने उन्हें ‘काफिर’ कहा, ‘विधर्मी’ कहा, ‘धर्मद्रोही’ कहा। उनके खिलाफ़ फतवे जारी हुए। और जब 1757 के आसपास बुल्ले शाह इस दुनिया से विदा हुए, तो वही कट्टरपंथी जिन्होंने जीवन भर उनका विरोध किया था, अब उनकी लाश को भी स्वीकारने को तैयार न थे। कहा गया—“ऐसा आदमी खानदानी कब्रिस्तान में कैसे दफन हो सकता है?” परिवार पहले ही नाराज़ था, समाज भी विरोध में था। इसी कारण बुल्ले शाह को खानदानी कब्रिस्तान में जगह नहीं मिली। लेकिन क्या इससे उनकी रूहानी महानता कम हो गई? बिल्कुल नहीं। उन्हें क़ासूर में एक सादा-सी ज़मीन पर दफनाया गया। वह जगह आज ‘दरगाह बुल्ले शाह’ कहलाती है, जहां लाखों लोग हर साल जाते हैं। कट्टरता हार गई, प्रेम जीत गया।
बुल्ले शाह की कविताएँ आज भी इस धरती की सबसे खूबसूरत रूहानी धरोहरों में गिनी जाती हैं। उनका संदेश बड़ा साफ़ था—“रब को पाने का रास्ता घरों, किताबों और नियमों की भीड़ से नहीं, बल्कि इंसान के भीतर से होकर जाता है।” उन्होंने मज़हबी तख्तों को चुनौती दी, जाति के अहंकार को तोड़ा, समाज के डर पर हँसे, और इंसानियत की लौ को ऊँचा उठाया। बुल्ले शाह की विरासत आज भी पंजाब की मिट्टी में गूँजती है, सूफी संगीत में बहती है, कव्वालियों के सुरों में झूमती है और उन दिलों में जगमगाती है जो सच्चाई, प्रेम और रूहानी आज़ादी की तलाश में भटकते हैं। वह कहते थे—“बुल्ला की jaana main kaun”—और दरअसल यही उनका सबसे बड़ा संदेश था—अगर तू खुद को पहचान ले, तो रब भी मिल जाएगा। बुल्ले शाह बाहरी दुनिया में नहीं, इंसान के भीतर बसने वाली रौशनी का नाम है। उनकी मौत को समाज ने चाहे जितना रोका हो, उनकी रूह और उनका कलाम आज भी दुनिया को रास्ता दिखा रहा है—और यही उनकी असली जीत है।





