जब रूस ने बेचा अपना खज़ाना: अलास्का की वो डील जिस पर आज तक पछता रहा है पूरा रूस

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concept&writer: Yoganand Shrivastava

कहानी है उस वक्त की, जब दुनिया की नक्शे पर न रॉकेट थे, न तेल की राजनीति, और न ही परमाणु बटन—बस एक यूरोप था जो बर्फ, सत्ता और लालच में डूबा हुआ था। साल था 1867, जब रूस ने अपनी सबसे कीमती जमीन, यानी अलास्का (Alaska), अमेरिका को बेच दी। सौदा इतना सस्ता कि सुनकर आज भी यकीन नहीं होता—सिर्फ 72 लाख डॉलर में, यानी करीब पचास पैसे प्रति एकड़ के हिसाब से! सोचिए, वो जमीन जो आज सोने, तेल और गैस से लबालब है, रूस ने लगभग कौड़ियों में बेच डाली। और अब डेढ़ सौ साल बाद, हर बार जब रूस उस नक्शे को देखता है, जहाँ उसकी सीमा से अलग होकर अमेरिका का अलास्का चमकता है, तो शायद इतिहास की सबसे बड़ी ठोकर की गूंज सुनाई देती है।

कहानी की शुरुआत होती है 18वीं सदी में, जब रूस का साम्राज्य अपने चरम पर था। रूस ने साइबेरिया पार करके पूर्व की ओर बढ़ना शुरू किया, और 1741 में रूसी खोजकर्ता विटस बेरिंग (Vitus Bering) और एलेक्सी चिरिकोव (Alexei Chirikov) ने अमेरिका के उत्तरी हिस्से में कदम रखा। यही था अलास्का—बर्फ से ढका, ठंडा, पर प्राकृतिक संसाधनों से भरा स्वर्ग। जल्द ही रूस ने यहाँ बस्तियाँ बसाईं, फर (जानवरों की खाल) का व्यापार शुरू किया, और इस नई दुनिया को कहा—“रूसी अमेरिका।” लेकिन मुश्किल यह थी कि यह इलाका रूस से हजारों किलोमीटर दूर था, और वहाँ तक पहुंचने के लिए महीनों का सफर तय करना पड़ता था।

1800 के दशक तक रूस के लिए अलास्का बोझ बनने लगा। क्राइमियन वॉर (1853–56) में रूस पहले ही ब्रिटेन और फ्रांस से हार चुका था। खजाना खाली, सेना कमजोर, और यूरोप में दुश्मन बढ़ रहे थे। ऐसे में रूस को डर था कि अगर अगला युद्ध हुआ, तो ब्रिटेन अलास्का पर कब्जा कर सकता है। उस वक्त कनाडा ब्रिटेन का ही इलाका था, और रूस को यह जमीन हर हाल में सुरक्षित करनी थी। इसी डर के बीच एक अजीब-सी सोच जन्मी—“अगर कब्जा होना ही है, तो क्यों न इसे बेच दिया जाए… और वो भी अपने दोस्त को।”

अब कहानी में एंट्री होती है अमेरिका की। उस वक्त अमेरिका गृहयुद्ध से उबर रहा था, और अपने साम्राज्य का विस्तार करना चाहता था। रूस और अमेरिका के बीच रिश्ते उस दौर में काफी दोस्ताना थे, क्योंकि दोनों ब्रिटेन के खिलाफ थे। तो रूस ने गुपचुप एक प्रस्ताव रखा—“हम अलास्का बेचने को तैयार हैं।” अमेरिका के विदेश मंत्री विलियम एच. सीवार्ड (William H. Seward) ने तुरंत इसमें दिलचस्पी दिखाई। सीवार्ड को लगता था कि यह सौदा अमेरिका के लिए ‘भविष्य की डील’ होगी। कई अमेरिकी नेताओं ने इस विचार का मजाक उड़ाया। उन्होंने इसे कहा—“Seward’s Folly” (सीवार्ड की मूर्खता) या “Seward’s Icebox” (सीवार्ड का बर्फीला डिब्बा)। क्योंकि सबको लगता था कि अलास्का बर्फ से ढका एक बंजर टुकड़ा है, जहाँ न खेती हो सकती है, न इंसान रह सकता है।

लेकिन सीवार्ड डटे रहे। 30 मार्च 1867 को सौदा हुआ—अलास्का के 17 लाख वर्ग किलोमीटर क्षेत्रफल के लिए 72 लाख डॉलर। रूस के राजदूत एडवर्ड डी स्टोएकल (Eduard de Stoeckl) ने वाशिंगटन में यह समझौता साइन किया। 18 अक्टूबर 1867 को सीतका (Sitka) में एक समारोह हुआ, जहाँ रूसी झंडा उतारा गया और अमेरिकी झंडा लहराया गया। यह दिन अलास्का में आज भी “Alaska Day” के रूप में मनाया जाता है। उस वक्त रूस के अखबारों में इस डील की खबर को लगभग नज़रअंदाज़ कर दिया गया—सबको लगा कि यह समझदारी भरा फैसला है, क्योंकि अलास्का तो बर्फीला कबाड़ था।

लेकिन इतिहास के पहिए बहुत अजीब ढंग से घूमते हैं। लगभग 30 साल बाद, यानी 1896 में, अलास्का में सोने की खोज हुई—क्लोंडाइक गोल्ड रश (Klondike Gold Rush)। लाखों लोग भागे-भागे वहां पहुंचे, और अमेरिका ने एक झटके में उस जमीन से अरबों डॉलर कमाए। फिर आगे चलकर अलास्का के पहाड़ों और समुद्र तटों पर तेल और प्राकृतिक गैस के विशाल भंडार मिले। 20वीं सदी तक अलास्का अमेरिका के सबसे धनी और रणनीतिक राज्यों में गिना जाने लगा। वहीं रूस, जिसने यह जमीन बेची थी, हर दशक के साथ पछतावे में डूबता चला गया।

अगर आज के हिसाब से देखें, तो अलास्का की कीमत 1 ट्रिलियन डॉलर से भी ज्यादा है। वहाँ से अमेरिका अपनी तेल की ज़रूरत का बड़ा हिस्सा पूरा करता है, और उसके सैन्य बेस रूस की सीमा के बिल्कुल पास हैं। यानी, रूस ने न सिर्फ अपना प्राकृतिक खज़ाना खोया, बल्कि अपनी सुरक्षा ढाल भी बेच दी। आज अगर आप ग्लोब पर देखें तो रूस और अलास्का के बीच बस 85 किलोमीटर की बेरिंग जलसंधि है—इतना करीब, कि मौसम साफ़ हो तो एक तट से दूसरे तट तक दिख जाता है। यही वो दूरी है जो रूस और अमेरिका के बीच अब “दुश्मनी की दीवार” बन चुकी है।

अब सवाल उठता है—रूस ने आखिर क्यों बेचा? असल वजहें तीन थीं—कर्ज़, डर और दूरी। रूस के पास उस वक्त पैसे की भारी कमी थी, ब्रिटेन से युद्ध के बाद अर्थव्यवस्था चरमराई हुई थी, और अलास्का तक नियंत्रण रखना बेहद महंगा था। रूस की राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग से अलास्का की दूरी इतनी थी कि एक संदेश पहुंचाने में हफ्ते लग जाते थे। इसके अलावा, रूस को डर था कि अगर कभी ब्रिटेन से टकराव हुआ, तो अलास्का सीधा कब्जा लिया जाएगा। इसलिए रूस ने सोचा—“बेचना बेहतर है, हारा तो भी नुकसान नहीं।” पर यह “बेहतर” फैसला इतिहास के सबसे बड़े पछतावे में बदल गया।

दूसरी तरफ, अमेरिका ने अलास्का को अपने रणनीतिक मोहरे की तरह इस्तेमाल किया। द्वितीय विश्व युद्ध में अलास्का से जापान पर नज़र रखी गई, शीत युद्ध (Cold War) में वहां से रूस की जासूसी की गई, और नॉर्थ पोल तक अमेरिकी पहुंच संभव हुई। आज अलास्का अमेरिका की सैन्य दृष्टि से सबसे अहम जगहों में से एक है। वहीं रूस के इतिहासकार आज भी कहते हैं—“अगर अलास्का रूस के पास होता, तो अमेरिका हमारे दरवाज़े तक नहीं पहुँच पाता।”

समय बीता, साम्राज्य बदले, लेकिन अलास्का की यह डील रूस के इतिहास की किताबों में एक “राष्ट्रीय भूल” के रूप में दर्ज हो गई। कई बार रूसी मीडिया में यह तक कहा गया कि “अमेरिका ने रूस को ठग लिया।” लेकिन सच यह है कि किसी ने ठगा नहीं—रूस ने खुद अपने खजाने को बेकार समझकर बेच दिया।

आज जब रूस और अमेरिका के रिश्ते सबसे निचले स्तर पर हैं—यूक्रेन युद्ध, नाटो की बढ़त, प्रतिबंधों की लड़ाई—तो अलास्का का जिक्र रूस के नेताओं के भाषणों में अक्सर आता है। 2014 में जब रूस ने क्रीमिया पर कब्जा किया, तो कुछ रूसी सांसदों ने मज़ाक में कहा था—“अगला टारगेट अलास्का होगा।” बेशक यह मज़ाक था, पर उस मज़ाक के पीछे इतिहास की वह चुभन थी जो आज भी ज़िंदा है।

कहते हैं, हर सौदे में दो पक्ष होते हैं—एक जो पैसा कमाता है, और दूसरा जो सबक सीखता है। अलास्का की डील में अमेरिका ने पैसा भी कमाया और ताकत भी पाई; जबकि रूस ने सीखा कि कभी-कभी सस्ती डील सबसे महंगी साबित होती है।

और यही वजह है कि जब आज कोई रूसी इतिहासकार ग्लोब पर नज़र डालता है और देखता है कि अलास्का अमेरिका का हिस्सा है, तो उसकी आंखों में बस एक सवाल तैरता है—
“अगर हमने वो जमीन न बेची होती, तो क्या आज दुनिया का नक्शा कुछ और होता?”

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