1991 से आज तक भारत-रूस की दोस्ती: पुतिन की भारत यात्रा के रणनीतिक मायने

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concept: rp shrivastava, by: vijay nandan

दिल्ली: रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन का भारत दौरा सिर्फ़ एक राजनयिक विज़िट भर नहीं है। रूस–यूक्रेन युद्ध, पश्चिमी प्रतिबंधों, चीन की आक्रामक विदेश नीति और दक्षिण एशिया में बदलते शक्ति समीकरणों के बीच यह यात्रा कई स्तरों पर गहरे प्रभाव डाल सकती है। भारत और रूस के रिश्ते 1991 के बाद से व्यावहारिक रणनीतिक साझेदारी में बदलते गए हैं, जो आज ऊर्जा, रक्षा, तकनीक और भू-राजनीति के चार प्रमुख स्तंभों पर टिके हैं।

पुतिन की भारत यात्रा भारत-रूस आर्थिक और रक्षा साझेदारी को नया आयाम दे सकती है। यदि ऊर्जा, रक्षा या बड़ी तकनीकी डील आगे बढ़ती हैं, तो अमेरिका के लिए यह संकेत होगा कि भारत वैकल्पिक रणनीतिक ध्रुव बना रहा है। ऐसे में ट्रंप पर भारत के खिलाफ कड़े टैरिफ न लगाने का दबाव बढ़ेगा क्योंकि भारत पर व्यापारिक चोट चीन की तरह असर नहीं करेगी, उल्टा भारत को रूस और यूरोएशिया के करीब धकेल देगी। ट्रंप की “टैरिफ लेवरेज” रणनीति तभी काम आती है जब सामने वाला देश निर्भरता से बंधा हो। भारत-रूस समीकरण मजबूत होते ही वॉशिंगटन को भारत को बाज़ार, टेक्नोलॉजी और निवेश के बेहतर ऑफ़र देने पड़ेंगे वरना टैरिफ नीति उलटी पड़ सकती है।

दक्षिण एशिया की राजनीति पर प्रभाव: स्थिरता का संदेश

भारत–रूस संबंधों की स्थिरता पूरे दक्षिण एशिया में एक संकेत भेजती है। पाकिस्तान, तुर्की और चीन जैसे भारत-विरोधी ब्लॉक लंबे समय से मानते रहे हैं कि रूस यूक्रेन युद्ध के चलते वैश्विक स्तर पर सीमित हो गया है, लेकिन पुतिन का भारत दौरा इस मिथक को तोड़ता है। यह संदेश देता है कि मॉस्को को एशिया में अभी भी मजबूत और भरोसेमंद सहयोगी दिखते हैं।

भारत—रूस संबंधों की मजबूती दक्षिण एशिया के उन देशों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाती है, जो क्षेत्रीय शक्ति संतुलन को अस्थिर करने की कोशिश में हैं। तुर्की-पाकिस्तान रक्षा साझेदारी हो या चीन–पाक आर्थिक कॉरिडोर (CPEC), भारत और रूस का निकट होना, इन प्रयासों की व्यावहारिक क्षमता कम कर देता है। भारत के पास पुरानी रक्षात्मक तकनीक से लेकर अत्याधुनिक S-400 एयर डिफेंस जैसे ऐसे सिस्टम हैं, जो क्षेत्रीय खेल बदलने की क्षमता रखते हैं और जहां रूस एक दीर्घकालिक सप्लायर बना हुआ है।

पाकिस्तान और तुर्की पर असर: रणनीतिक कम्पल्शन

पाकिस्तान ने युद्धकाल में रूस से सस्ते तेल खरीदने की कोशिश की, लेकिन रूस और भारत की प्राथमिकताएँ स्पष्ट रहीं, नई दिल्ली को रियायती ऊर्जा मिली जबकि इस्लामाबाद को कूटनीतिक संकेत। पुतिन का दौरा इस तथ्य को रेखांकित करेगा कि रूसी सैन्य-तकनीक और ऊर्जा बुनियादी ढांचे का लाभ भारत को प्राथमिकता से मिलता है। तुर्की, जो नाटो सदस्य होने के बावजूद रूस से विमानों और मिसाइल प्रणाली खरीदता है, भारत-रूस समीकरण को चिंताजनक नज़र से देखेगा। अंकारा यह समझता है कि भारत—रूस साझेदारी सिर्फ़ रक्षा नहीं, बल्कि एशियाई भू-रणनीति का प्रेशर सेंटर है। यह उसे पाकिस्तान के साथ सैन्य खेल में सीमित कर देता है।

चीन पर संभावित दबाव: मित्रता की सीमाएँ

भारत—रूस संबंधों के बीच सबसे महत्वपूर्ण आयाम चीन है। बीजिंग और मॉस्को औपचारिक रूप से रणनीतिक साझेदार हैं, लेकिन पुतिन का भारत दौरा उन सीमाओं को उजागर करता है, जो रूस चीन को लेकर अपनी नीति में रखता है।
रूस एशिया में सिर्फ़ चीन पर निर्भर नहीं रहना चाहता। भारत—रूस रक्षा सहयोग, ऊर्जा व्यापार, परमाणु क्षेत्र तथा स्पेस-टेक के क्षेत्र में जो समझौते होते हैं, वे चीन को संकेत देते हैं कि एशिया में शक्ति का केंद्र बहुध्रुवीय है, एकध्रुवीय नहीं।

जब भारत लद्दाख, डोकलाम या अरुणाचल में चीन के साथ तनाव में होता है, तब रूस संतुलनकारी भूमिका निभाता है। वह हथियार सप्लाई रोकता नहीं, यह बीजिंग के लिए अप्रत्यक्ष दबाव का रूप है।

इतिहास: 1991 के बाद से आज तक रिश्तों की मज़बूती

भारत—सोवियत संबंधों की जड़ें 1950–80 के दशक में पड़ीं, लेकिन 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बाद स्थिति बदल गई। नए रूस ने प्रारंभिक वर्षों में पश्चिम की ओर झुकाव दिखाया, लेकिन भारत के साथ सामरिक विश्वास कायम रहा।
1998 के परमाणु परीक्षण के बाद जब पश्चिम ने प्रतिबंध लगाए, रूस पहला देश था, जिसने भारत को कूटनीतिक और सैन्य समर्थन दिया। 2000 में दोनों देशों के बीच स्ट्रैटेजिक पार्टनरशिप पर हस्ताक्षर हुए। इसके बाद रक्षा, स्पेस और ऊर्जा क्षेत्र में रिश्ते तेज़ी से प्रगाढ़ हुए, ब्राह्मोस मिसाइल से लेकर INS विक्रमादित्य, सुखोई-30MKI, T-90 टैंक—रूस ने भारत को वे क्षमताएँ दीं जिनसे दोनों के रिश्ते एक “सुरक्षा साझेदारी” में बदले।

भारत–पाकिस्तान युद्ध: रूस का स्पष्ट पक्ष

1971 के भारत–पाक युद्ध में सोवियत समर्थन निर्णायक रहा। अमेरिका और चीन पाकिस्तान का साथ दे रहे थे, जबकि रूस ने भारत के पक्ष में स्थायी वीटो का आश्वासन दिया। सोवियत नौसेना ने हिंद महासागर में अमेरिकी बेड़े को रोकने की भूमिका निभाई, जिससे भारत के लिए रणनीतिक खिड़की खुली और बांग्लादेश का अस्तित्व सुनिश्चित हुआ। उस दौर से ही भारत–रूस संबंधों में “विश्वास” वैचारिकी से ज्यादा महत्वपूर्ण तत्व बन गया।

भारत–चीन युद्ध और रूस की भूमिका

1962 के भारत–चीन युद्ध के दौरान सोवियत नेतृत्व की स्थिति जटिल थी, लेकिन दो दशक बाद तस्वीर बदल गई। रूस ने भारत को हथियार, फाइटर जेट और टैंक सप्लाई किए, वही क्षमताएँ जिन्होंने 1967 के नाथूला संघर्ष में भारत को चीन पर बढ़त दी। शीत युद्ध के उत्तरार्ध में मॉस्को हमेशा चीन के बजाय भारत को तकनीकी साझेदार मानता रहा।

पुतिन की यात्रा: भविष्य का संकेत

आज जब पश्चिम रूस को अलग-थलग करने की कोशिश कर रहा है, पुतिन का भारत दौरा बताता है कि मॉस्को के लिए नई दिल्ली सिर्फ़ ग्राहक नहीं, भू-रणनीतिक मित्र है। रक्षा उद्योग से ऊर्जा, रूस भारत के साथ लंबी अवधि की आपूर्ति श्रृंखला और तकनीकी साझेदारी चाहता है। भारत भी एकतरफा अमेरिकी निर्भरता के बजाय संतुलित वैश्विक विकल्पों को महत्व देता है। इस यात्रा का सबसे बड़ा संदेश यह है कि भारत—रूस रिश्ते “आवश्यकता आधारित” नहीं, “विश्वास आधारित” हैं। यही आधार दक्षिण एशिया की राजनीति और चीन के समीकरण को बदलेगा।

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