आज हम बात करेंगे एक हाई-प्रोफाइल केस की, जो सुर्खियों में है – पूर्व IPS ऑफिसर संजीव भट्ट का मामला। ये केस 1990 के एक कस्टोडियल डेथ से जुड़ा है, और हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने इस पर बड़ा फैसला सुनाया है। तो चलिए, इस मामले को डिटेल में समझते हैं, बिल्कुल आसान भाषा में, जैसे मैं हमेशा करता हूँ।
क्या है पूरा मामला?
1990 में, संजीव भट्ट गुजरात के जामनगर में अडिशनल सुपरिंटेंडेंट ऑफ पुलिस थे। उस समय देश में माहौल गरम था। बीजेपी और विश्व हिंदू परिषद ने भारत बंद का ऐलान किया था, क्योंकि बीजेपी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ्तार किया गया था। आडवाणी उस समय अयोध्या में राम मंदिर के लिए रथ यात्रा निकाल रहे थे। इस बंद के दौरान जामनगर में दंगे भड़क गए।
संजीव भट्ट ने इन दंगों को कंट्रोल करने के लिए 130 से ज्यादा लोगों को हिरासत में लिया। लेकिन इनमें से एक व्यक्ति की कस्टडी में मौत हो गई। आरोप लगा कि इस मौत के पीछे कस्टोडियल टॉर्चर यानी पुलिस हिरासत में यातना थी। इसके बाद संजीव भट्ट और कुछ अन्य पुलिसकर्मियों के खिलाफ केस दर्ज हुआ।
कानूनी प्रक्रिया क्या रही?
- सेशंस कोर्ट ने संजीव भट्ट को इस मामले में दोषी ठहराया और उम्रकैद की सजा सुनाई।
- भट्ट ने इसके खिलाफ गुजरात हाई कोर्ट में अपील की, लेकिन जनवरी 2024 में हाई कोर्ट ने उनकी अपील खारिज कर दी।
- फिर भट्ट ने सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। 2004 में सुप्रीम कोर्ट ने गुजरात सरकार को नोटिस जारी किया और सुनवाई शुरू की।

हाल ही में, 29 अप्रैल 2025 को, सुप्रीम कोर्ट ने इस केस में फैसला सुनाया। जस्टिस विक्रम नाथ और संदीप मेहता की बेंच ने कहा, “हम संजीव भट्ट को जमानत देने के पक्ष में नहीं हैं। जमानत की अर्जी खारिज की जाती है।” लेकिन कोर्ट ने ये भी निर्देश दिया कि उनकी उम्रकैद की सजा के खिलाफ अपील की सुनवाई को तेज किया जाए। यानी, कोर्ट चाहता है कि इस केस का जल्दी निपटारा हो।
संजीव भट्ट के खिलाफ और क्या केस हैं?
संजीव भट्ट का ये इकलौता केस नहीं है। उनके खिलाफ दो और बड़े मामले हैं:
- 1996 का ड्रग प्लांटिंग केस: इसमें आरोप है कि भट्ट ने एक शख्स के खिलाफ झूठा ड्रग केस बनाया। इस मामले में उन्हें 20 साल की सजा मिली है, और उनकी अपील गुजरात हाई कोर्ट में लंबित है।
- 1997 का कस्टोडियल टॉर्चर केस: इस मामले में उन्हें दिसंबर 2024 में एक मजिस्ट्रेट कोर्ट ने बरी कर दिया।
इस केस का क्या महत्व है?
दोस्तों, ये केस सिर्फ एक व्यक्ति की कहानी नहीं है। ये हमें कई बड़े सवालों की ओर ले जाता है:
- पुलिस की जवाबदेही: अगर पुलिस हिरासत में किसी की मौत होती है, तो क्या सिस्टम इसे गंभीरता से लेता है?
- न्यायिक प्रक्रिया: संजीव भट्ट जैसे हाई-प्रोफाइल केस में भी सुनवाई में इतना वक्त लगता है, तो आम आदमी का क्या हाल होगा?
- राजनीतिक कोण: कुछ लोग कहते हैं कि भट्ट को उनके बीजेपी विरोधी रुख की वजह से टारगेट किया गया। क्या ये सच है, या ये सिर्फ कानूनी प्रक्रिया का हिस्सा है?
मेरा विश्लेषण
मेरे हिसाब से, इस केस में दोनों पक्षों को देखना जरूरी है। एक तरफ, अगर भट्ट ने वाकई कस्टोडियल टॉर्चर में भूमिका निभाई, तो सजा मिलना सही है। लेकिन दूसरी तरफ, अगर उन्हें राजनीतिक कारणों से फंसाया गया है, तो ये हमारे सिस्टम की निष्पक्षता पर सवाल उठाता है। सुप्रीम कोर्ट का जमानत न देना और सुनवाई तेज करने का आदेश एक बैलेंस्ड अप्रोच दिखाता है। लेकिन असली सच्चाई तभी सामने आएगी, जब अपील की सुनवाई पूरी होगी।
आप क्या सोचते हैं?
दोस्तों, इस केस के बारे में आपकी राय क्या है? क्या संजीव भट्ट को जमानत मिलनी चाहिए थी? या क्या सुप्रीम कोर्ट का फैसला सही है?