जब विरासत ने सुलगते सवाल छोड़े
साल 680 ईस्वी। दमिश्क, जो उस दौर में उमय्यद सल्तनत की राजधानी थी, वहां एक शानदार महल में इस्लाम की राजनीति को हमेशा के लिए बदल देने वाला एक दृश्य घट रहा था। उमय्यद सल्तनत के संस्थापक और इस्लामी दुनिया के पहले बादशाह मुआविया इब्न अबु सुफियान अंतिम सांसें ले रहे थे।
राजनीति और कूटनीति में माहिर मुआविया ने अरब के बिखरे कबीलों को एकजुट कर सल्तनत बनाई थी। लेकिन आज उनकी जुबान लड़खड़ा रही थी। उन्होंने अपने बेटे यज़ीद को बुलाया और इतिहास में दर्ज हो जाने वाली वो बात कही, जिसमें एक पिता की चिंता भी थी और एक सियासतदान की चतुराई भी।
“बेटा, मैंने तुम्हारे रास्ते के सारे कांटे हटा दिए हैं। लेकिन तीन लोगों से होशियार रहना। तीसरे हैं हुसैन इब्न अली। वो सीधे और सम्मानित हैं। लेकिन इराक के लोग उन्हें बगावत के लिए उकसाएंगे। अगर ऐसा हो, और तुम जीत जाओ, तो उन्हें माफ कर देना। याद रखना, वो पैगंबर के नवासे हैं। उनका हक बहुत बड़ा है।”
मुआविया की ये सलाह यज़ीद ने सुनी जरूर, पर याद नहीं रखी। यही भूल इस्लामी इतिहास में कर्बला जैसे जख्म की वजह बनी, जिसका असर आज भी कायम है।
यज़ीद का सत्ता संभालना: विरासत या विवाद?
खिलाफत से सल्तनत तक
पैगंबर मोहम्मद की वफात के बाद इस्लाम में खलीफा चुनने की परंपरा मशवरे से होती थी। पहले चार खलीफा — अबू बक्र, उमर, उस्मान और अली — इसी तरीके से चुने गए। लेकिन मुआविया ने देखा कि हर चुनाव के बाद झगड़े और फितने (गृह युद्ध) पैदा होते हैं।
इसीलिए उन्होंने फैसला किया कि अब खिलाफत को राजशाही में बदल दिया जाए, जहां सत्ता वंशानुगत होगी। उनका बेटा यज़ीद, जो शिकार, संगीत और शायरी में रुचि रखता था, सल्तनत का वारिस बना।
यज़ीद पर लगे आरोप
इतिहासकारों के मुताबिक यज़ीद:
- महंगे रेशमी कपड़े पहनता था
- शराब पीता था
- शाही बंदर पालता था
ये बातें उसकी छवि को और विवादित बनाती हैं।
यज़ीद की विरासत पर साजिश और चतुराई
मुआविया को पता था कि अरब के आज़ाद ख्याल कबीलों को मनाना आसान नहीं होगा। उन्होंने सत्ता में रहते-रहते ‘वली-ए-अहद’ की घोषणा कर दी — यानी अपने जीते-जी वारिस तय कर दिया।
कबीलों के सरदारों को दमिश्क बुलाया जाता, शानदार मेहमाननवाजी होती, कीमती तोहफे दिए जाते और धीरे-धीरे यज़ीद के नाम पर सहमति बनती गई।
पर कुछ लोग डटे रहे:
- इमाम हुसैन इब्न अली (पैगंबर मोहम्मद के नवासे)
- अब्दुल्ला इब्न जुबैर
- कुछ अन्य मदीना के सम्मानित लोग
हुसैन का विरोध सैद्धांतिक था। उनके मुताबिक, खिलाफत कोई पारिवारिक जागीर नहीं, बल्कि एक ज़िम्मेदारी थी जो मशवरे से तय होनी चाहिए।
कर्बला की ओर बढ़ता कदम
यज़ीद का पहला आदेश
680 ईस्वी में मुआविया की मौत के बाद यज़ीद ने गद्दी संभाली। उसका पहला कदम ही आने वाले तूफान की आहट था — उसने मदीना के गवर्नर को हुसैन से निष्ठा की शपथ लेने का हुक्म दिया। अगर न माने, तो उनका सिर कलम कर दिया जाए।
हुसैन का मक्का प्रस्थान
हुसैन समझ गए कि मदीना में रहना खतरनाक है। वो अपने परिवार के साथ मक्का चले गए, जहां खून-खराबे की मनाही थी।
कुफा की छल-कपट भरी उम्मीद
मक्का में हुसैन को इराक के कुफा शहर से सैकड़ों खत मिले:
“हमें आपका इमाम चाहिए। ज़ालिम यज़ीद के खिलाफ हम आपके साथ हैं।”
हुसैन ने शुरू में भरोसा नहीं किया। पर सच्चाई जानने के लिए अपने चचेरे भाई मुस्लिम इब्न अकील को भेजा।
मुस्लिम इब्न अकील की शहादत
कुफा में शुरुआत में ज़बरदस्त समर्थन मिला। 12,000 लोगों ने हुसैन की बैत की। लेकिन यज़ीद के गवर्नर इब्न जियाद ने सोने, धन और डर के बल पर लोगों का मन बदल दिया। मुस्लिम अकेले पड़ गए, गिरफ्तार हुए और शहीद कर दिए गए। आखिरी संदेश में उन्होंने हुसैन को कुफा न आने की सलाह दी, लेकिन तब तक देर हो चुकी थी।
कर्बला: इतिहास का खूनी मोड़
हुसैन का काफिला और कर्बला का मैदान
हुसैन अपने परिवार और 72 साथियों के साथ कुफा की ओर बढ़े। इराक की सीमा पर हुर इब्न यज़ीद ने उनका रास्ता मोड़कर कर्बला के वीरान मैदान में रोक दिया।
2 मुहर्रम 680 को हुसैन कर्बला पहुंचे। जल्द ही यज़ीद की 4,000 सैनिकों की फौज पहुंच गई, जिसका नेतृत्व शिमर कर रहा था। पानी बंद कर दिया गया।
10 मुहर्रम: अशूरा का दिन
- 3 दिन तक बच्चे और महिलाएं प्यास से तड़पते रहे
- लड़ाई में हुसैन के बेटे अली अकबर, भाई अब्बास और बाकी साथी शहीद हुए
- हुसैन का 6 महीने का बेटा अली असगर भी तीर का शिकार बना
आखिर में हुसैन अकेले बचे। शिमर ने उनका सिर कलम कर दिया। यहीं से इस्लामी इतिहास में कर्बला का वो अध्याय दर्ज हुआ, जिसे कभी भुलाया नहीं जा सका।
कर्बला के बाद: यज़ीद की क्रूरता का सिलसिला
- हुसैन के परिवार को कैद कर कूफा और दमिश्क ले जाया गया
- यज़ीद ने गुनाह का दोष गवर्नर पर डाला, पर लोग मानने को तैयार नहीं थे
- मदीना में हुसैन के परिवार के पहुंचते ही बगावत भड़क उठी
- यज़ीद ने मदीना और मक्का पर हमले किए, जिसे इतिहास के काले अध्यायों में गिना जाता है
यज़ीद की मौत और उसके बाद
683 ईस्वी में यज़ीद की बीमारी से मौत हुई। इसके बाद:
- उमय्यद सल्तनत में गृह युद्ध शुरू हुआ
- मरवान परिवार ने सत्ता संभाली
- अब्बासी खिलाफत का उदय हुआ
यज़ीद की विरासत: एक सवाल, कई जवाब
इतिहास की नजर में:
- एक नाकाम बादशाह
- पिता मुआविया की नीतियों को समझ न सका
सुन्नी मुसलमानों की नजर में:
- वैध खलीफा, पर तीन बड़े गुनहगारियों का दोषी:
- कर्बला में इमाम हुसैन की हत्या
- मदीना पर हमला और लूट
- मक्का और काबा पर हमला
शिया मुसलमानों की नजर में:
- यज़ीद सिर्फ एक जालिम और लानती शख्स
- उसका शासन अवैध माना जाता है
- कर्बला की घटना इस्लाम की आत्मा पर हमला थी
निष्कर्ष: सत्ता, ज़ुल्म और अमर जख्म
यज़ीद इब्न मुआविया का शासन महज 3 साल 8 महीने का था, लेकिन उसने इस्लामी इतिहास पर जो जख्म दिए, वो 1400 साल बाद भी ताजा हैं।
कर्बला की कहानी सिर्फ एक ऐतिहासिक घटना नहीं, बल्कि सत्ता की भूख, राजनीतिक चालों और इंसाफ की लड़ाई का प्रतीक है। यही वजह है कि आज भी मुहर्रम के दिन शिया मुसलमान ‘या हुसैन’ के नारे लगाकर उस शहादत को याद करते हैं।