BY: VIJAY NANDAN
“उत्तर प्रदेश पुलिस को बॉर्डर पर भेज दो, आतंकियों को गाली दे-देकर मार डालेगी!”
ये मशवरा सुनने में मज़ाक लग सकता है, लेकिन इसमें छिपी है एक गहरी विडंबना, एक कटाक्ष और शायद एक नई सोच का बीज भी है।
क्या गाली आतंकवाद का इलाज है ?
उत्तर प्रदेश पुलिस लंबे समय से अपने “अनोखे व्यवहार” के लिए चर्चित रही है। सोशल मीडिया पर कहानियाँ भरी पड़ी हैं — कोई थाने में गया और इंसाफ से पहले गाली मिल गई, कोई पूछताछ में गया और थप्पड़ साथ ले आया। यही कारण है कि ये कहा जाने लगा है कि यूपी पुलिस को कभी गाली देने की बाकायदा ट्रेनिंग दी जाती थी।
अब सवाल ये है कि क्या यही “ट्रेनिंग” सीमा पर काम आ सकती है?
क्या अगर आतंकियों को सुबह-शाम “डोज़” मिले — अपशब्दों के, तो वो पेड़ की तरह सूख जाएंगे?
“एक पेड़ को रोज़ गाली दो, वो सूख जाएगा” क्या आतंकियों पर लागू होता है ये नियम?
लोककथाओं में कहा जाता है कि पेड़ को रोज गाली देने से उसकी उर्जा खत्म हो जाती है। सवाल उठता है — क्या नफरत, हिंसा और आतंक के बीज से पनपे लोगों पर भी यही सिद्धांत लागू हो सकता है?
क्या अगर एक आतंकी रोज़ 12 गालियां सुन ले, तो उसका AK-47 कमज़ोर पड़ जाएगा?
या फिर हम इस लाइन को यूं समझें — कि आतंकवाद से निपटने के लिए जितनी बंदूकें ज़रूरी हैं, उतनी ही जरूरी है मानसिक दबाव, सामाजिक अपमान और मनोवैज्ञानिक रणनीति?

यूपी पुलिस का ‘खौफ’ मज़ाक, मिथक या मनोवैज्ञानिक हथियार?
जब कोई कहता है कि “यूपी पुलिस को बॉर्डर पर भेज दो”, तो वो शायद ये बताने की कोशिश कर रहा है कि अगर कोई सबसे कठोर, बेलौस, बिंदास और दबंग तंत्र है — तो वो यूपी पुलिस है। लेकिन ये भी सच है कि यही पुलिस कभी-कभी न्याय की सीमा लांघती नजर आती है।
- क्या गाली एक रणनीतिक उपकरण है?
- क्या मनोवैज्ञानिक दबाव आतंक के ढांचे को तोड़ सकता है?
- या फिर ये वाक्य सिर्फ हमारे देश की फ्रस्ट्रेशन और सिस्टम पर तंज है?
कठोरता बनाम संविधान
एक ओर तो हम चाहते हैं कि आतंकियों को फौरन सजा मिले, दूसरी ओर हमारा संविधान कहता है । ‘न्याय सबको समान रूप से मिले’। ऐसे में ‘गाली देकर मार डालने’ जैसे जुमले हमें एक आईने की तरह दिखाते हैं कि कहीं हम खुद भी हिंसा के प्रतीक तो नहीं बनते जा रहे?

क्या वाकई में यूपी पुलिस को गाली देने की ट्रेनिंग दी जाती थी?
यूपी पुलिस को गाली देने का प्रशिक्षण दिया जाता था” — यह बात अक्सर व्यंग्य, लोककथन या सोशल मीडिया कटाक्ष के रूप में कही जाती है, लेकिन वास्तविकता में इसका कोई आधिकारिक या प्रमाणित आधार नहीं है।
- किसी सरकारी या पुलिस प्रशिक्षण दस्तावेज़ में यह नहीं लिखा गया है कि यूपी पुलिस को गाली देने की ट्रेनिंग दी जाती थी या दी जाती है।
- पुलिस की ट्रेनिंग में मुख्य रूप से कानून, हथियार चलाना, अपराध जांच, भीड़ नियंत्रण, और अब साइबर अपराध जैसे विषय शामिल होते हैं।
- व्यवहारिक प्रशिक्षण (Behavioural Training) और ह्यूमन राइट्स की शिक्षा भी आधुनिक पुलिस ट्रेनिंग का हिस्सा है, खासकर NHRC और राज्य मानवाधिकार आयोग के दिशा-निर्देशों के बाद।
तो यह धारणा कैसे बनी?
- यूपी पुलिस का सख्त रवैया, भाषा की कड़ाई और कई बार मारपीट की घटनाएं आम जनता के अनुभव में रही हैं।
- इसी वजह से जनमानस में एक धारणा बन गई कि पुलिसवाले खासतौर पर उत्तर प्रदेश में, कड़वी भाषा या गाली-गलौज से बात करते हैं।
- यह धारणा लोक-व्यंग्य में बदल गई — जिसे मीडिया, सोशल मीडिया मीम्स, और आम बोलचाल में बार-बार दोहराया गया।
“गाली देकर मार डालने” की बात एक तरफ भले ही मज़ाक लगे, लेकिन ये हमारी न्यायिक व्यवस्था, पुलिसिंग प्रणाली और आतंकवाद से लड़ने की सोच पर कई सवाल खड़े करती है। क्या हमें अपनी रणनीति बदलने की ज़रूरत है? क्या आतंक को खत्म करने के लिए मानसिक हथियार भी जरूरी हैं? या फिर हम खुद उस व्यवस्था का हिस्सा बनते जा रहे हैं, जिसे हम खत्म करना चाहते हैं?