जातिगत जनगणना से 1947 की ‘नफरती’ भूल को सुधारेगा भारत ?
BY: VIJAY NANDAN
आज भारत और पाकिस्तान एक बार फिर युद्ध के मुहाने पर खड़े हैं। कश्मीर घाटी से लेकर सीमाओं तक तनाव चरम पर है। ऐसे समय में अतीत के झरोखे में झांकना और उन सामाजिक-राजनीतिक कारणों को समझना ज़रूरी हो जाता है, जिनकी वजह से दो देश इस मोड़ पर पहुंचे।
भारत और पाकिस्तान का बंटवारा केवल ज़मीन का नहीं, बल्कि सोच का भी था। पाकिस्तान की नींव एक ऐसी वैचारिक दीवार पर रखी गई थी, जो धर्म के नाम पर ‘हम और वो’ के भेद को पुख्ता करती थी। लेकिन इस बंटवारे की जड़ें केवल 1947 में नहीं, उससे पहले के समाज की उन दरारों में थीं, जिन्हें हमने लंबे समय तक अनदेखा किया।
जिन्ना का परिवार और हिंदू अतीत: एक अनकही पीड़ा
मोहम्मद अली जिन्ना, जिनकी छवि पाकिस्तान के निर्माता के रूप में स्थापित है, उनके परिवार की पृष्ठभूमि भारतीय समाज के सामाजिक ढांचे पर कई गंभीर सवाल खड़े करती है। जिन्ना का जन्म 25 दिसंबर 1876 को कराची में हुआ था। उनके पिता पोंजा जिन्ना और दादा प्रेमजीभाई ठक्कर मूलतः गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र (वर्तमान भावनगर ज़िला) के वणिया (बनिया) समुदाय से थे, जो परंपरागत रूप से हिंदू व्यापारी वर्ग माना जाता है।
ऐसा कहा जाता है कि जिन्ना के दादा प्रेमजीभाई ने समाज में किसी कारणवश इस्लाम कबूल किया और जिन्नाभाई ठक्कर बन गए। यह परिवर्तन किसी एक दिन का नहीं, बल्कि वर्षों की सामाजिक उपेक्षा और भेदभाव का परिणाम था। कुछ स्रोतों में यह भी बताया गया है कि स्थानीय हिंदू समाज द्वारा उन्हें जातिगत कारणों से बहिष्कृत किया गया, जिससे आहत होकर उन्होंने धर्म परिवर्तन का निर्णय लिया।
पोंजा जिन्ना, मोहम्मद अली जिन्ना के पिता, ने भी कराची में एक व्यापारिक जीवन चुना। वह कपड़े और अनाज के व्यापारी थे। उनका गुजरात से कराची विस्थापन केवल आर्थिक नहीं था, उसमें सामाजिक बहिष्कार और सम्मान की तलाश भी शामिल थी।

अगर न होती नफरत, न बनता पाकिस्तान?
यह कल्पना करना अटपटा लग सकता है, लेकिन अगर उस समय समाज में धर्म या जाति के नाम पर भेदभाव नहीं होता, अगर प्रेमजीभाई को उनकी जाति या सामाजिक स्तर के कारण दरकिनार न किया गया होता, तो शायद वह इस्लाम कबूल नहीं करते और न ही जिन्ना का जन्म एक मुस्लिम परिवार में होता। तब शायद पाकिस्तान का विचार जन्म ही नहीं लेता और आज भारत-पाकिस्तान युद्ध के मुहाने पर नहीं होते।

भारत-पाकिस्तान: नफरत से उपजा युद्ध
1947 से अब तक भारत और पाकिस्तान चार बड़े युद्ध लड़ चुके हैं। 1947, 1965, 1971 और 1999 का कारगिल युद्ध। हर युद्ध का मूल कारण सिर्फ जमीन नहीं, बल्कि वह नफरत रही है, जो 1947 के विभाजन के साथ पैदा हुई और आतंकवाद के रूप में परवान चढ़ी।
आज एक बार फिर दोनों देशों के बीच हालात बेहद संवेदनशील हैं। पाकिस्तान के आर्मी चीफ जनरल आसीम मुनीर का हिंदुओं के खिलाफ नफरती बयान उसके बाद घाटी में 26 हिंदू पर्यटकों की आतंकवादियों द्वारा हत्या करना। इसके साथ ही आए दिन सीमावर्ती क्षेत्रों में गोलीबारी और पाकिस्तान में पल रहे आतंकियों की भारत विरोधी गतिविधियां, यह सब उसी नफरत के बीज से उपजे हैं, जिसे कभी मोहम्मद अली जिन्ना की राजनीति ने हवा दी थी।
भारत में जातिगत जनगणना: इतिहास दोहराएगा या बदलेगा?
भारत और पाकिस्तान के बीच तनाव है, दौरान भारत सरकार ने जातिगत जनगणना कराने की ऐलान किया है, इसलिए ये सवाल मौजू हो जाता है कि जातिगत जनगणना कराने से भारतीय समाज के सबसे निचले तबके के साथ हो रहा भेदभाव और उससे पनप रही नफरत कम होगी, क्या हिंदू समाज में वर्ण व्यवस्था से उपजी भेदभाव की खाई को पाटने पर विचार किया जाएगा। भारत आज जातिगत जनगणना की ओर बढ़ रहा है। इसका उद्देश्य सामाजिक न्याय और संसाधनों का समावेशी वितरण बताया जा रहा है। लेकिन सवाल ये है क्या यह वाकई समाज को जोड़ने वाला कदम होगा, या फिर एक और विभाजन की शुरुआत?
वर्ण व्यवस्था और जातिगत भेदभाव ने सदियों तक दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों को हाशिए पर रखा। आज अगर सही डेटा मिल जाए, तो योजनाएं बेहतर बन सकती हैं। लेकिन यदि यह सिर्फ राजनीतिक वोटबैंक का माध्यम बन गई, तो यह भी एक नई सामाजिक दरार बन जाएगी।
सबक साफ है: भेद नहीं, समावेश चाहिए
पाकिस्तान का निर्माण ही समाजिक बहिष्कार और अस्वीकार्यता से हुआ। आज अगर भारत में भी जाति, धर्म, वर्ग या पहचान के आधार पर समाज में नई दीवारें खड़ी की गईं, तो हम इतिहास की सबसे बड़ी भूल दोहराएंगे।
हमें समझना होगा कि नफरत कभी समाधान नहीं होती। यह सिर्फ बंटवारे, युद्ध और दर्द को जन्म देती है ,जैसा हमने 1947 में देखा, और जैसा आज सीमा पर महसूस हो रहा है।
नफरत से नहीं, न्याय और समरसता से बनते हैं राष्ट्र
भारत को अगर मजबूत बनाना है, तो हमें नफरत की नहीं, न्याय की ज़रूरत है। जातिगत गणना हो या सीमा पर तनाव, हर निर्णय सामाजिक समावेश और राष्ट्रीय एकता को ध्यान में रखकर होना चाहिए। क्योंकि इतिहास यही बताता है। जहां नफरत जीतती है, वहां राष्ट्र हारते हैं।