एक दोस्ती जो दुश्मनी में बदल गई
एक समय था जब ईरान और इज़राइल एक-दूसरे के सहयोगी हुआ करते थे। तेल की पाइपलाइन, सैन्य समझौते और राजनीतिक रिश्ते इस दोस्ती की मिसाल थे। लेकिन आज, वही दो देश एक-दूसरे के खून के प्यासे हैं। क्या आपको पता है कि ईरान ही पहला मुस्लिम देश था जिसने इज़राइल को मान्यता दी थी? फिर क्या हुआ कि आज 45 साल से ये दोनों देश छाया युद्ध (Proxy War) में उलझे हैं और अब सीधे हमले तक पहुँच चुके हैं?
यह लेख उसी जटिल कहानी का विस्तृत विश्लेषण है, जिसमें धर्म, राजनीति, भू-राजनीति और मिडिल ईस्ट की सत्ता की जंग छिपी हुई है।
✉️ 1989 में खुमैनी की चिट्ठी: एक भविष्यवाणी?
जनवरी 1989 में ईरान के सुप्रीम लीडर अयातुल्ला रुहोल्लाह खुमैनी ने सोवियत नेता मिखाइल गोर्बाचेव को एक पत्र भेजा। उन्होंने कम्युनिज़्म छोड़ धर्म अपनाने की सलाह दी और चेतावनी दी कि सोवियत यूनियन का अंत निकट है। गोर्बाचेव ने जवाब नहीं दिया, लेकिन 3 साल बाद 1991 में USSR का विघटन हो गया। इसे खुमैनी के समर्थक आज भी एक भविष्यवाणी मानते हैं।
🕒 2015 की घोषणा: इज़राइल का अंत?
खुमैनी के उत्तराधिकारी अली खामेनेई ने 2015 में दावा किया कि 25 सालों में इज़राइल का अस्तित्व मिट जाएगा। तेहरान के पलेस्टाइन स्क्वायर में एक डिजिटल घड़ी लगाई गई जो “इज़राइल की तबाही के दिन” गिन रही है।
लेकिन क्या आपको पता है, इज़राइल को मान्यता देने वाला पहला मुस्लिम देश ईरान ही था?
🕊️ 1948 से 1979: दोस्ती की शुरुआत
- 1948: जब इज़राइल बना, अरब देशों ने उसे मान्यता नहीं दी। लेकिन ईरान (तुर्की के बाद) दूसरा मुस्लिम देश था जिसने इज़राइल को मान्यता दी।
- तेल सहयोग: दोनों देशों के बीच पाइपलाइन बिछी। ईरान, इज़राइल को कच्चा तेल सप्लाई करता था।
- सुरक्षा सहयोग: इज़राइल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने ईरानी एजेंसी सवाक को ट्रेनिंग दी।
- दूतावास व फ्लाइट्स: दोनों देशों के बीच एंबेसी और सीधी उड़ानें थीं।
🔄 1979 इस्लामिक क्रांति: दुश्मनी की शुरुआत
1979 में ईरान में इस्लामिक क्रांति हुई और अयातुल्लाह खुमैनी सत्ता में आए। इसके साथ ही:
- इज़राइल की एंबेसी बंद कर दी गई
- पलेस्टीन की एंबेसी खोली गई
- इज़राइल से सारे संबंध तोड़ दिए गए
- तेल की आपूर्ति रोक दी गई
🧠 ईरान की रणनीति: पॉलिटिक्स बनाम इंसानियत
ईरान खुद को मिडिल ईस्ट का नेता साबित करना चाहता है, खासकर सुन्नी बहुल मुस्लिम देशों के बीच। पलेस्टीन का समर्थन करके ईरान यह दिखाना चाहता है कि वह ‘कमजोरों’ के साथ खड़ा है। जबकि असल वजह है क्षेत्रीय प्रभुत्व की राजनीति।
🇺🇸 अमेरिका का रोल: बड़े दानव और छोटे दानव
- ईरान के अनुसार अमेरिका “बड़ा दानव” और इज़राइल “मिडिल ईस्ट का छोटा दानव” है।
- अमेरिका, मिडिल ईस्ट में सुन्नी देशों को इज़राइल के करीब लाकर ईरान का दबदबा कम करना चाहता है।
🗓️ अल-कुद्स डे: इज़राइल विरोध का प्रतीक
1979 से हर साल रमज़ान के अंतिम शुक्रवार को ईरान में “अल-कुद्स डे” मनाया जाता है। इस दिन तेहरान में इज़राइल विरोधी नारे लगते हैं और पलेस्टीन के समर्थन में प्रदर्शन होते हैं।
🛰️ प्रॉक्सी वॉर की रणनीति
ईरान पिछले 45 वर्षों से इज़राइल के खिलाफ प्रत्यक्ष नहीं, बल्कि प्रॉक्सी लड़ाई लड़ रहा है:
- गज़ा में हमास को समर्थन
- लेबनान में हिज़्बुल्लाह को हथियार
- यमन में हूती विद्रोहियों को सहयोग
7 अक्टूबर 2023 को जब हमास ने इज़राइल पर हमला किया, तो अगले दिन हिज़्बुल्लाह और हूती लड़ाके भी सक्रिय हो गए।
🧨 इज़राइल की प्रतिक्रियाएं
इज़राइल भी पीछे नहीं रहा:
- 1980: ऑपरेशन ऑपरा के तहत इराक का न्यूक्लियर रिएक्टर नष्ट किया
- 2010: टक्सनेट वायरस से ईरान का न्यूक्लियर प्रोग्राम बाधित
- 2012-2020: ईरानी न्यूक्लियर वैज्ञानिकों की रहस्यमयी हत्याएं
- 2020: “फादर ऑफ ईरान न्यूक्लियर प्रोग्राम” डॉ. मोहसिन फखरीजादे की हाईटेक हत्या
⚔️ डायरेक्ट अटैक: अब क्यों?
प्रश्न: जब इतने वर्षों से प्रॉक्सी युद्ध चल रहा था, तो अब डायरेक्ट अटैक क्यों?
उत्तर: अप्रैल 2024 में इज़राइल ने सीरिया स्थित ईरानी कॉन्सुलट पर हमला किया। इसके जवाब में ईरान ने पहली बार सीधे इज़राइल पर हमला किया।
📜 अब्राहम समझौता और ईरान की चिंता
2020 में अमेरिका की मध्यस्थता में इज़राइल ने चार अरब देशों—यूएई, बहरीन, मोरक्को, सूडान—से दोस्ती की। कहा गया कि जल्द सऊदी अरब भी इज़राइल से समझौता करने वाला था।
लेकिन: 7 अक्टूबर 2023 के हमास अटैक ने ये योजना टाल दी।
ईरान को इसका फायदा मिला—अब वह खुद को अरबों का ‘सच्चा रक्षक’ दिखा सकता है।
🔚 निष्कर्ष: यह जंग इंसानियत के खिलाफ है
ईरान और इज़राइल की यह जंग किसी धर्म या मजलूमों के लिए नहीं, बल्कि मिडिल ईस्ट की सत्ता की भूख के लिए लड़ी जा रही है। यह राजनीतिक शतरंज है, जिसमें मोहरे बनते हैं आम लोग, और सत्ता के लिए कुर्बान होती हैं बेगुनाह जानें।
📢 निष्कर्ष से पहले एक सवाल:
क्या मिडिल ईस्ट की ये राजनीति कभी इंसानियत को प्राथमिकता दे पाएगी?
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