फिल्मों में बढ़ती हिंसा: मनोरंजन या समाज के लिए खतरा ?

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Increasing violence in films: Entertainment or threat to society?

फिल्मों में बढ़ती हिंसा बच्चों के संस्कारों की चिंता

by: Vijay Nandan

फिल्में हमेशा से समाज का आईना मानी जाती हैं। वे न केवल मनोरंजन का माध्यम होती हैं, बल्कि सामाजिक मुद्दों को उजागर करने और जनता को जागरूक करने का भी कार्य करती हैं। लेकिन वर्तमान में, विशेष रूप से दक्षिण भारतीय फिल्मों में, बढ़ती हिंसा, मारधाड़ और मर्डर के दृश्य एक सामान्य प्रवृत्ति बन गई है। यह प्रवृत्ति क्या हमारे समाज पर नकारात्मक प्रभाव डाल रही है? क्या फिल्मों का यह स्वरूप लोगों की मानसिकता और सामाजिक ताने-बाने को प्रभावित कर रहा है? आइए इस पर विस्तार से चर्चा करें।


बीते कुछ वर्षों में, दक्षिण भारतीय सिनेमा—विशेष रूप से तेलुगु, तमिल, कन्नड़ और मलयालम फिल्मों में एक ट्रेंड देखने को मिला है, जिसमें मुख्य रूप से अत्यधिक मारधाड़, खून-खराबा, और बदले की भावना को बढ़ावा दिया जाता है।

1. हिंसा के बढ़ते दृश्य:

  • बड़े बजट और एक्शन-थ्रिलर का बढ़ता क्रेज:
    “के.जी.एफ”, “पुष्पा”, “सालार”, “विक्रम” जैसी फिल्मों में अत्यधिक खून-खराबे और जबरदस्त मारधाड़ को दिखाया गया है।
  • बदले की भावना को उकसाने वाली कहानियाँ:
    फिल्मों की स्क्रिप्ट में गैंगस्टर ड्रामा, माफिया राज, पुलिस और अपराधियों के बीच खूनी संघर्ष जैसी थीम प्रमुख होती जा रही हैं।
  • विजुअल इफेक्ट्स और एक्शन सीन्स की अधिकता:
    एडवांस टेक्नोलॉजी और VFX की मदद से हिंसा को और भी प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया जा रहा है, जिससे दर्शकों पर इसका गहरा असर पड़ता है।

2. समाज पर बढ़ते प्रभाव

फिल्मों में दिखाए जा रहे हिंसक दृश्यों का समाज पर गहरा असर पड़ रहा है।

  • युवा पीढ़ी पर असर:
    • युवा दर्शक हीरो को हिंसक और आक्रामक रूप में देखकर उसे अपना आदर्श मानने लगते हैं
    • गैंगस्टर और माफिया जीवनशैली को स्टाइलिश तरीके से पेश किया जाता है, जिससे अपराध को महिमामंडित किया जाता है।
  • अपराध बढ़ने की संभावना:
    • कई मनोवैज्ञानिक शोधों से यह साबित हुआ है कि लगातार हिंसक कंटेंट देखने से व्यक्ति के भीतर आक्रामकता बढ़ सकती है
    • किशोरों और युवाओं में गुस्सा, असहिष्णुता और क्रोध जैसी भावनाएँ बढ़ती हैं।
  • सामाजिक मूल्यों का ह्रास:
    • पारिवारिक फिल्में कम हो रही हैं और हिंसा प्रधान फिल्में हावी हो रही हैं, जिससे सामाजिक मूल्यों पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है
    • रिश्तों और आपसी संवाद की बजाय, आक्रामकता को एक साधन के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है।

3. क्या दर्शक ही इसके लिए जिम्मेदार हैं?

फिल्में बनती हैं क्योंकि दर्शक उन्हें पसंद करते हैं। जब किसी फिल्म को बॉक्स ऑफिस पर सफलता मिलती है, तो प्रोड्यूसर और निर्देशक उसी शैली की और फिल्में बनाते हैं। लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या दर्शकों को केवल हिंसा और खून-खराबा पसंद है?

  • दक्षिण भारतीय फिल्मों में हिंसा के बावजूद दमदार कहानी, अभिनय, और सिनेमैटोग्राफी भी होती है, जो दर्शकों को आकर्षित करती है।
  • लेकिन बॉलीवुड और अन्य इंडस्ट्री में पारिवारिक और सामाजिक मुद्दों पर बनी फिल्में (जैसे “3 इडियट्स”, “दंगल”, “चक दे इंडिया”) भी सुपरहिट हुई हैं।
  • इसका मतलब है कि दर्शक हर तरह की फिल्में पसंद करते हैं, लेकिन निर्माताओं को संतुलन बनाए रखना चाहिए।

4. सेंसर बोर्ड और फिल्म निर्माताओं की जिम्मेदारी

  • सेंसर बोर्ड को सख्त दिशा-निर्देश बनाने चाहिए, ताकि हिंसा को अनावश्यक रूप से न दिखाया जाए।
  • फिल्म निर्माताओं को चाहिए कि वे मनोरंजन के साथ-साथ सकारात्मक संदेश देने वाली कहानियों पर भी ध्यान दें।
  • दर्शकों को भी समझना होगा कि केवल एक्शन और हिंसा से भरी फिल्में देखने से समाज में बदलाव नहीं आएगा

क्या समाधान है?

फिल्मों में हिंसा पूरी तरह खत्म नहीं हो सकती, क्योंकि यह कहानी कहने का एक तरीका भी है। लेकिन जब हिंसा मनोरंजन से ज्यादा एक ट्रेंड बन जाए, तो यह समाज के लिए चिंता का विषय बन जाता है। फिल्म निर्माता, सेंसर बोर्ड और दर्शकों को मिलकर यह सोचना होगा कि हिंसा के अलावा भी सिनेमा में बहुत कुछ दिखाया जा सकता है। सिनेमा को एक सशक्त माध्यम के रूप में प्रयोग किया जाना चाहिए, जो समाज में जागरूकता, प्रेरणा और सकारात्मकता फैलाए, न कि सिर्फ हिंसा और आक्रामकता को बढ़ावा दे। अब यह हम पर निर्भर करता है कि हम कैसी फिल्में देखना और बढ़ावा देना चाहते हैं!

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