लेखक: विजय नंदन,
भारत की राजनीति में समय-समय पर ऐसे खुलासे सामने आते हैं, जो न केवल सत्ता और विपक्ष के बीच टकराव को तेज कर देते हैं, बल्कि आम नागरिकों के मन में भी कई सवाल खड़े कर देते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता और पूर्व गृहमंत्री पी. चिदंबरम का हालिया बयान भी इसी श्रेणी में आता है। उन्होंने स्वीकार किया कि 2008 के 26/11 मुंबई हमले के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने पाकिस्तान पर सैन्य कार्रवाई करने पर विचार किया था, लेकिन अमेरिका समेत वैश्विक दबाव के चलते भारत ने संयम का रास्ता चुना।
यह बयान ऐसे समय में सामने आया है, जब मोदी सरकार द्वारा हाल ही में “ऑपरेशन सिंदूर” के तहत पाकिस्तान के आतंकी ठिकानों पर की गई कार्रवाई पर विपक्ष सवाल उठा रहा है। अब सवाल यह है कि दो अलग-अलग सरकारों के फैसलों की तुलना किस दृष्टिकोण से की जाए और भारतीय राजनीति में इसके क्या निहितार्थ निकलते हैं?
26/11: संयम की राजनीति या दबाव की मजबूरी?
मुंबई पर हुए 26/11 हमले में 175 निर्दोष लोगों की जान गई थी। पूरा देश गुस्से और आक्रोश से भरा हुआ था। तब तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह और उनकी टीम के सामने दो विकल्प थे—
- पाकिस्तान पर सीधा सैन्य प्रहार
- अंतरराष्ट्रीय समर्थन जुटाकर पाकिस्तान को वैश्विक स्तर पर अलग-थलग करना
चिदंबरम का कहना है कि उस समय तत्कालीन अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस ने भारत सरकार को युद्ध शुरू न करने की सलाह दी। अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों का तर्क था कि किसी भी तरह का युद्ध न केवल दक्षिण एशिया बल्कि पूरी दुनिया की सुरक्षा को खतरे में डाल सकता है।

यूपीए सरकार ने संयम दिखाया और कूटनीतिक रास्ता चुना। पाकिस्तान को अंतरराष्ट्रीय मंच पर आतंकवाद का पनाहगार साबित किया गया और लश्कर-ए-तैयबा जैसे संगठनों पर कार्रवाई हुई। लेकिन भारतीय जनता का एक बड़ा वर्ग आज भी मानता है कि यह कदम कायरता था और सरकार को कड़ा सैन्य जवाब देना चाहिए था।
मोदी सरकार का दृष्टिकोण: “बदला” बनाम “संयम”
यूपीए सरकार की “संयम नीति” के विपरीत, मोदी सरकार ने आतंक के खिलाफ “सर्जिकल स्ट्राइक” और “बालाकोट एयरस्ट्राइक” जैसे कदम उठाए। हाल ही में पहलगाम में हुए आतंकी हमले के बाद “ऑपरेशन सिंदूर” के तहत भारतीय वायुसेना ने पाकिस्तान के आतंकी अड्डों को तबाह कर दिया।
जब पाकिस्तान ने पलटवार किया, तो भारतीय सेना ने उसके कई एयरबेस को भी निशाना बनाया। इसका संदेश साफ था। भारत अब आतंक के खिलाफ सीमापार कार्रवाई से पीछे नहीं हटेगा। यहां सरकार का रुख जनता की अपेक्षाओं से मेल खाता दिखता है। आज का भारत संयम से ज्यादा “बदले की क्षमता” पर विश्वास करता है। मोदी सरकार ऑपरेशन सिंदूर कर पाकिस्तान ये साफ संदेश दे दिया कि अब भारत सीमा से पार हुए किसी भी आतंकी हमले को सहन नहीं करेगा बल्कि उसका जवाब सीमा पार जाकर सैन्य कार्रवाई से देगा। मोदी सरकार ने पाकिस्तान की बार-बार परमाणु बम की धमकी को भी न्यू नार्मल कर दिया है। मोदी सरकार ने दुनिया को ये बताने में सफल रही है कि पाकिस्तान परमाणु बम की धमकी देकर अब भारत को ब्लैकमेल नहीं कर सकता है।
राजनीति का एंगल: राहुल गांधी और विपक्ष की मुश्किल
मोदी सरकार की किसी भी कार्रवाई पर विपक्ष सवाल उठाता है। राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने “ऑपरेशन सिंदूर” को लेकर कहा था कि यह अमेरिका के दबाव में युद्धविराम पर खत्म हुआ। विपक्ष ने इसे चुनावी स्टंट और मोदी सरकार की “दिखावटी आक्रामकता” करार दिया।
लेकिन अब चिदंबरम का बयान विपक्ष के ही गले की फांस बन गया है। अगर यूपीए सरकार ने 26/11 के बाद अंतरराष्ट्रीय दबाव के कारण कदम पीछे खींचे थे, तो आज का विपक्ष किस नैतिक आधार पर मोदी सरकार के कदमों पर सवाल खड़ा कर सकता है?
यहां राजनीतिक पैंतरेबाज़ी का द्वंद्व साफ दिखता है—
- सत्ता में रहते हुए संयम को “नीति” बताना
- विपक्ष में रहकर आक्रामकता को “चुनावी नौटंकी” कहना
अंतरराष्ट्रीय दबाव: तब और अब
2008 में भारत आर्थिक और सामरिक रूप से उतना सक्षम नहीं था जितना आज है। उस समय अमेरिका की मध्यस्थता को नज़रअंदाज़ करना आसान नहीं था। भारत को आतंकवाद के खिलाफ वैश्विक समर्थन चाहिए था, और पाकिस्तान को सीधा निशाना बनाने से यह समर्थन बिखर सकता था।
लेकिन 2025 का भारत अलग है। अब भारत जी-20, ब्रिक्स और क्वाड जैसे मंचों पर निर्णायक भूमिका निभा रहा है। चीन और रूस की रणनीतिक चालों के बीच भारत की स्थिति मजबूत है। अमेरिका भी अब भारत को नज़रअंदाज़ करने की स्थिति में नहीं है। इसलिए मोदी सरकार को सीमापार कार्रवाई करने में वही अंतरराष्ट्रीय दबाव महसूस नहीं होता, जो यूपीए सरकार पर था।
जनमानस का एंगल: भावनाएं बनाम कूटनीति
भारतीय जनता के लिए आतंकवादी हमले केवल सुरक्षा का सवाल नहीं, बल्कि “राष्ट्रीय स्वाभिमान” का मुद्दा हैं। 26/11 हमले के बाद लोगों ने अपेक्षा की थी कि पाकिस्तान को तत्काल जवाब दिया जाएगा। जबकि ऑपरेशन सिंदूर जैसी कार्रवाइयों के बाद जनता में यह संदेश गया कि भारत अब “चुप” नहीं बैठता। इससे सरकार को राजनीतिक लाभ मिलता है और विपक्ष की आलोचना फीकी पड़ जाती है।
विपक्ष की खामोशी या नई रणनीति?
चिदंबरम के बयान ने विपक्ष को असहज कर दिया है। अब सवाल है कि राहुल गांधी, अखिलेश यादव और अन्य विपक्षी नेता क्या चुप्पी साध लेंगे या फिर कोई नया तर्क पेश करेंगे। संभव है कि विपक्ष कहे—हर सरकार की परिस्थितियां अलग होती हैं, और हमें आज भी अंतरराष्ट्रीय दबाव को ध्यान में रखना चाहिए। लेकिन जनता के बीच यह तर्क टिक पाना मुश्किल है, क्योंकि जनभावनाएं अब “कूटनीति” से ज्यादा “कार्रवाई” चाहती हैं।

दो दौर, दो दृष्टिकोण
- यूपीए सरकार (2008): अंतरराष्ट्रीय दबाव, आर्थिक व कूटनीतिक विवशताएं, संयम की नीति।
- मोदी सरकार (2025): आत्मविश्वास, जनभावनाओं से मेल खाता आक्रामक रुख, पाकिस्तान पर सीधा प्रहार।
दोनों की तुलना करने पर यह स्पष्ट है कि भारत की शक्ति और कूटनीतिक स्थिति समय के साथ बदली है। चिदंबरम का बयान इस बदलाव को और उजागर करता है। राजनीति की दृष्टि से देखें तो यह बहस आने वाले समय में और तीखी होगी। विपक्ष को अब या तो अपने पुराने फैसलों का बचाव करना होगा या फिर मोदी सरकार की कार्रवाइयों को स्वीकार करना होगा। जनता के मन में सवाल सीधा है। क्या भारत अब अपनी शर्तों पर आतंकवाद का जवाब दे रहा है, या फिर आज भी वैश्विक दबाव हमें रोक सकता है?