लेखक, नीरज तिवारी
(लेखक, शिक्षाविद, राजनीतिक विश्लेषक, सामाजिक विचारक)
बिहार विधानसभा चुनाव से ठीक पहले केंद्र सरकार का जीएसटी दरों में बड़ा बदलाव किसी राहत से ज्यादा एक राजनीतिक रणनीति के रूप में देखा जा रहा है। 453 वस्तुओं पर टैक्स में फेरबदल, जिनमें 413 चीजें सस्ती और सिर्फ 40 महंगी यह घोषणा आम जनता को जरूर राहत देती दिख रही है। पर असली सवाल यही है कि क्या यह कदम वास्तव में जनता के लिए दीर्घकालिक लाभ है, या फिर यह सिर्फ चुनावी मौसम का लुभावना तोहफ़ा है।
बिहार की सियासत इन दिनों बेहद दिलचस्प मोड़ पर खड़ी है। जन स्वराज पार्टी के प्रमुख प्रशांत किशोर लगातार जनता के बीच पहुँच बना रहे हैं और युवाओं, किसानों तथा बेरोजगारों को अपनी ओर खींचने में सफल होते नज़र आ रहे हैं। दूसरी ओर राजद और कांग्रेस जैसे पारंपरिक विपक्षी दल भी सक्रिय हैं और महंगाई, बेरोजगारी तथा बदहाल शिक्षा-स्वास्थ्य को बड़ा मुद्दा बना रहे हैं। ऐसे माहौल में केंद्र सरकार का अचानक से जीएसटी बोनाॅंज़ा लाना केवल आर्थिक फैसला नहीं माना जा सकता।
राजनीति में टाइमिंग सब कुछ कहती है। यह फैसला ऐसे समय में आया है जब बिहार ही नहीं बल्कि बंगाल और अन्य राज्यों के चुनाव की तैयारियाँ भी जोर पकड़ रही हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का “हर घर स्वदेशी” का नारा और जीएसटी राहत का पैकेज मिलकर चुनावी रणनीति का हिस्सा लगता है। यह संदेश दिया जा रहा है कि केंद्र सरकार महंगाई की मार समझती है और जनता की जेब का ख्याल रखती है।
लेकिन जनता का अनुभव भी कुछ और कहता है। चुनावी मौसम में राहत देना और फिर धीरे-धीरे बोझ बढ़ाना भारतीय राजनीति की पुरानी परंपरा रही है। बिहार का मतदाता इसे भली-भांति समझता है। खासकर तब, जब विपक्ष महंगाई और बेरोजगारी को मुद्दा बना रहा हो और प्रशांत किशोर जैसे नेता युवाओं के बीच वैकल्पिक राजनीति की जमीन तैयार कर रहे हों।
जीएसटी दरों में यह बदलाव निश्चित रूप से बाजार में हलचल पैदा करेगा। कार, मोबाइल, घरेलू सामान और इलेक्ट्रॉनिक उपकरण सस्ते होंगे, जिससे मध्यम वर्ग को थोड़ी राहत मिलेगी। त्योहारों के मौसम में खपत बढ़ेगी और व्यापारी वर्ग में रौनक लौटेगी। लेकिन सवाल यही रहेगा कि यह राहत कितनी स्थायी है। अगर यह केवल चुनाव तक सीमित रह गई, तो जनता इसे “चुनावी तोहफ़ा” मानकर ही देखेगी।
बिहार का चुनाव हमेशा से राष्ट्रीय राजनीति का बैरोमीटर रहा है। यहाँ मतदाताओं ने कई बार यह दिखाया है कि वे केवल लुभावने पैकेजों से प्रभावित नहीं होते, बल्कि जमीनी मुद्दों पर भी निर्णय लेते हैं। यही वजह है कि केंद्र सरकार ने विपक्ष की सक्रियता और प्रशांत किशोर जैसे नेताओं की बढ़ती पकड़ को देखते हुए यह फैसला लिया है, ताकि चुनावी संतुलन उनके पक्ष में झुका रहे।
अंततः यह कहना गलत नहीं होगा कि जीएसटी बोनाॅंज़ा दोहरी भूमिका निभा रहा है। एक ओर जनता को तत्काल राहत और दूसरी ओर चुनावी रणनीति का मजबूत हथियार। अब यह बिहार की जनता पर है कि वे इसे एक सच्ची राहत मानते हैं या फिर चुनावी मौसम का एक और आकर्षक पैकेज।