‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद नया खेल, नाटो जैसा अलायंस बना तो भारत को कितना खतरा ?
by: vijay nandan
पाकिस्तान द्वारा खाड़ी और कैस्पियन क्षेत्र के देशों के साथ सैन्य गुट बनाने की दिशा में कदम उठाने की बात सामने आ रही है, जिसे मीडिया में “गल्फ-कैस्पियन डिफेंस एंड सिक्योरिटी अलायंस” का नाम दिया जा रहा है। इसमें कतर-यूएई-अज़रबैजान शामिल हो सकते हैं और इसके पीछे मानवीय, सामरिक व आर्थिक मंशा हो सकती है। इस लेख में हम यह देखेंगे कि (1) क्या यह वास्तव में “नाटो- जैसा” सैन्य गठबंधन है? (2) भारत के लिए क्या खतरा है? (3) क्या इस गठबंधन में वास्तव में चीन की भूमिका है और क्या पाकिस्तान चीन का हथियार दलाल बन रहा है ?
क्या सच में “नाटो-जैसा सैन्य गठबंधन” बना रहा है पाक?
विश्लेषक इस दिशा में उत्सुक हैं क्योंकि हाल में सऊदी अरब और पाकिस्तान ने एक “स्ट्रेटेजिक म्यूचुअल डिफेंस एग्रीमेंट” पर हस्ताक्षर किए हैं, जिसमें कहा गया है कि किसी एक देश पर हमला दूसरे पर हमला माना जाएगा। इसके आधार पर यह संभावना जताई जा रही है कि अन्य मुस्लिम-देश भी इसमें शामिल हो सकते हैं, जिससे यह एक बहु-देशीय रक्षा गठबंधन की दिशा में जा सकता है। हालाँकि अभी तक इस तरह का सार्वजनिक रूप से घोषित तीन-देशीय अलायंस (कतर-यूएई-अज़रबैजान सहित) सुरक्षित रूप से प्रमाणित नहीं हुआ है इसलिए इसे पूरी तरह “नाटो-मॉडल” कहना अभी जल्दबाजी होगी। विश्लेषकों का कहना है कि यह “बहुस्तरीय रक्षा साझेदारी” की दिशा में एक संकेत है, पर प्रत्येक देश की प्रतिबद्धता, आर्थिक/राजनीतिक मूल्यों को देखते हुए कितनी स्थायी होगी। यह अभी स्पष्ट होना बाकी है।

भारत के संदर्भ में खतरा क्या हो सकता है?
क्षेत्रीय सामरिक संतुलन बिगड़ना, यदि पाकिस्तान खाड़ी-कैस्पियन के मुस्लिम देशों के साथ मिलकर सैन्य-साझेदारी स्थापित कर ले, तो भारत के लिए एक नया दो-मुकाबी मोर्चा बन सकता है, जहाँ पाकिस्तान को मध्य पूर्व व खाड़ी-क्षेत्र में अधिक शक्ति व समर्थन प्राप्त हो जाएगा। हथियार व तकनीकी प्रसारण की संभावना ज्यादा है, पाकिस्तान और चीन के बीच लंबे समय से सैन्य-तकनीकी संबंध रहे हैं; पाकिस्तान का प्राथमिक हथियार स्रोत चीन है। यदि यह गठबंधन अस्तित्व में आता है, तो पाकिस्तान के माध्यम से इस क्षेत्र में हथियार व सैन्य तकनीक पहुंचने की संभावना बढ़ सकती है, जिससे भारत-सागर क्षेत्र में सुरक्षा चुनौती उत्पन्न हो सकती है।

प्रोपेगैंडा व राजनीतिक प्रभाव
यह गठबंधन “इस्लाम के नाम पर” निर्मित हो सकता है और भारत के खिलाफ एक रणनीतिक मोर्चा तैयार कर सकता है। यदि इसके पीछे पाकिस्तान-चीन नेटवर्क सक्रिय हो जाए, तो भारत को न सिर्फ सैन्य मोर्चे पर सतर्क रहना पड़ेगा बल्कि राजनीतिक-सामरिक रूप से भी तैयारी करनी होगी।
समुद्री मार्ग व ऊर्जा सुरक्षा पर असर
खाड़ी और अरब सागर क्षेत्र में यदि पाकिस्तान व उसके साझेदार देश सैन्य-सहयोग को बढ़ाएं, तो यह भारत के लिए समुद्री सुरक्षा, ऊर्जा मार्गों की सुरक्षा और उपलब्धता के संदर्भ में चिंता का विषय हो सकता है। पाकिस्तान अपनी रक्षा तथा रणनीतिक साझेदारियों को पुनर्संरचित कर रहा है। उदाहरण स्वरूप, चीन-से हथियार आयात का प्रतिशत बढ़ा हुआ है पाकिस्तान के हथियार आयात में लगभग 81% हिस्सा चीन का है। इसी तरह, सऊदी-पाकिस्तान समझौते के बाद पाकिस्तान ने बयान दिए हैं कि अन्य देश भी इसमें शामिल होने के इच्छुक हैं। तो यह कहना संभव है कि पाकिस्तान “नाटो-मॉडल” की दिशा की ओर देखा जा रहा गठबंधन बनाने की कोशिश कर रहा है, लेकिन यह अभी प्रारंभिक अवस्था में है, और यह पूरी तरह स्थापित नहीं हुआ।
यहाँ कई प्रश्न उठते हैं: क्या यह सैन्य गठबंधन “आतंकवाद-रक्षक कवच” के रूप में है? क्या पाकिस्तान इस्लामी देशों के लिए हथियार दलाल बन रहा है? पाकिस्तान ने खुद माना है कि चीन उसका प्रधान हथियार प्रदाता है और चीन-पाक मिलकर कई प्लेटफार्म विकसित कर रहे हैं। यदि गठबंधन में शामिल देश पाकिस्तानी-चीन हथियार प्रणालियों को साझा करें, तो इसे “हथियार नेटवर्क” के रूप में देखा जा सकता है, जो भारत के सामने नई चुनौतियाँ उत्पन्न कर सकता है। हालांकि, यह स्पष्ट नहीं कि यह गठबंधन आतंकवाद-रक्षक कवच के रूप में बनाया जा रहा है या क्षेत्रीय संतुलन व सैन्य-रणनीति के लिए इसलिए, “इस्लाम के नाम पर प्रोपेगैंडा” बनने का जोखिम हुआ है, विशेष रूप से यदि यह गठबंधन धर्म-आधारित स्वरूप ले ले। इस प्रकार, भारत को इस पहलू पर भी जागरूक रहना होगा कि यह सिर्फ एक सुरक्षा साझेदारी है या उसमें हस्तक्षेपकारी रणनीति व साझेदारी शामिल है।

चीन की भूमिका क्या होगी?
चीन पाक का मुख्य हथियार तथा तकनीकी सप्लायर रहा है पिछले दशक में पाक के आयात के करीब 80% हथियार चीन से आए हैं। चीन-पाक रणनीतिक साझेदारी सिर्फ उपकरण की आपूर्ति तक सीमित नहीं है, बल्कि सैन्य-अभ्यास, आधार उपयोग, समुद्री व वायु शक्ति प्रक्षेपण तक विस्तारित है। यदि यह ट्रिपल अलायंस अस्तित्व में आता है, तो चीन इस गठबंधन का तकनीकी एवं रणनीतिक “पीछे का हाथ” हो सकता है या तो हथियारों की आपूर्ति के रूप में, या साझेदारी व बाजार विस्तार के रूप में। इसके परिणामस्वरूप चीन-पाक साझेदारी भारत-सागर व हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में भारत की रणनीतिक चुनौती बढ़ा सकती है। यह भी ध्यान योग्य है कि चीन ने अभी तक बड़े पैमाने पर युद्ध नहीं लड़ा है (1979 की वियतनाम युद्ध के बाद) और उसकी हार्डवेयर की वास्तविक परीक्षण-प्रदर्शनी सीमित रही है। इसलिए उसकी क्षमता व विश्वसनीयता पर सवाल बने हैं, जो भारत के लिए जोखिम का स्रोत हो सकते हैं।
इस प्रकार, पाकिस्तान द्वारा खाड़ी-कैस्पियन देशों के साथ संभावित “ट्रिपल मिलिट्री अलायंस” की दिशा में कदम उठाना भारत के लिए एक महत्वपूर्ण रणनीतिक संकेत है। यह अभी पूर्ण गठबंधन नहीं बना है, फिर भी इसके बनने की संभावना, उसमें चीन की भूमिका, और भारत-सागर व दक्षिण एशिया में इसके प्रभाव की दिशा स्पष्ट हो रही है।





