BY: Yoganand Shrivastva
नई दिल्ली: जस्टिस यशवंत वर्मा केस के बाद से ही जजों की नियुक्ति की प्रक्रिया को लेकर देशभर में चर्चा तेज है। लोकसभा, राज्यसभा और विभिन्न राजनीतिक मंचों पर हाल ही में राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) का जिक्र उभर कर आया है। इस विवाद में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़, तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा सहित कई नेताओं ने अपनी-अपनी राय रखी है। आइए जानते हैं कि NJAC है क्या, वर्तमान में जजों की नियुक्ति कैसे की जाती है और इस विषय पर विपक्ष तथा समर्थकों की क्या-क्या टिप्पणियाँ हैं।
NJAC: एक परिचय
2014 में, नरेंद्र मोदी सरकार ने लोकसभा जीतने के बाद राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) के निर्माण का प्रस्ताव रखा। इसका उद्देश्य पारंपरिक कॉलेजियम प्रणाली के विकल्प के रूप में न्यायपालिका में नियुक्ति की प्रक्रिया में पारदर्शिता और संतुलन लाना था। NJAC में सरकार, विपक्ष, नागरिक समाज और सिविल सोसाइटी के प्रतिनिधियों को शामिल करने का प्रावधान था, जिससे उच्च न्यायालयों तथा सर्वोच्च न्यायालय में जजों की नियुक्ति में निष्पक्षता सुनिश्चित हो सके।
हालांकि, 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने NJAC विधेयक को असंवैधानिक करार दिया और कहा कि जजों की नियुक्ति का अधिकार पूर्व से प्रचलित कॉलेजियम प्रणाली के अधीन रहना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट के निर्णय में कहा गया कि कॉलेजियम प्रणाली संविधान में स्पष्ट रूप से उल्लिखित नहीं है, परन्तु जजेस के मामलों के माध्यम से इसकी व्याख्या की गई है। इस फैसले में अधिकांश जजों ने मतदान करते हुए यह सुनिश्चित किया कि वर्तमान प्रणाली में चीफ जस्टिस की भूमिका केंद्रीय बनी रहे।
कॉलेजियम प्रणाली और इसकी सीमाएँ
कॉलेजियम प्रणाली 1993 से चली आ रही है, जिसमें सुप्रीम कोर्ट के कुछ फैसलों के आधार पर जजों की नियुक्ति की जाती है। इसे संविधान में कहीं स्पष्ट रूप से उल्लेखित नहीं किया गया है, लेकिन न्यायपालिका ने ‘जजेस केस’ के माध्यम से इस व्यवस्था को मान्यता दी है। आलोचकों का कहना है कि कॉलेजियम प्रणाली पारदर्शिता और प्रतिनिधित्व के मामले में कमजोर है। वरिष्ठ वकीलों ने इस व्यवस्था में सुधार की मांग की है, जिससे न्यायिक नियुक्ति प्रक्रिया में अधिक संतुलन और जवाबदेही लाई जा सके।
NJAC के राजनीतिक और कानूनी पहलू
NJAC के निर्माण के लिए संविधान संशोधन विधेयक पेश करना होता है, जिसके लिए संसद के दोनों सदनों (लोकसभा और राज्यसभा) में दो-तिहाई सदस्यों के विशेष बहुमत के साथ-साथ देशभर की विधानसभाओं से मंजूरी आवश्यक है। 2014 में यह विधेयक लगभग सर्वसम्मति से पास हुआ था, जिसके तहत NJAC कॉलेजियम प्रणाली के स्थान पर नई नियुक्ति प्रणाली के रूप में प्रस्तुत किया गया था।
राजनीतिक प्रतिक्रियाएँ:
- भाजपा की प्रतिक्रिया:
तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बताया कि NJAC में उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय में नियुक्ति का निर्णय तब भी न्यायपालिका के हाथ में रहेगा क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस और दो अन्य जजों के पास पहले से ही बहुमत है। साथ ही, सरकार ने यह स्पष्ट किया कि NJAC में शामिल सिविल सोसाइटी के दो सदस्यों का चुनाव सरकार, विपक्ष और सीजेआई द्वारा किया जाएगा, जिससे संतुलन सुनिश्चित हो सके। - कांग्रेस की प्रतिक्रिया:
कांग्रेस ने भी NJAC विधेयक को समर्थन दिया था, लेकिन नेता कपिल सिब्बल ने इसमें उठाए गए कुछ प्रश्नों पर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने बताया कि यदि इस मामले को लेकर सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया जाता है तो न्यायिक प्रक्रिया में और विवाद हो सकते हैं। - अन्य राजनीतिक दल:
तृणमूल कांग्रेस के सांसद महुआ मोइत्रा ने कहा कि केंद्र सरकार इस मामले का इस्तेमाल सुप्रीम कोर्ट और हाईकोर्ट के जजों की नियुक्ति को बदलने के लिए करना चाहती है। वहीं, विपक्षी दलों में से कुछ ने कहा कि NJAC के समर्थन में आरक्षण का प्रावधान होना चाहिए, क्योंकि कॉलेजियम प्रणाली पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने में असफल रही है।
सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और वर्तमान स्थिति
2015 में सुप्रीम कोर्ट ने NJAC विधेयक को असंवैधानिक करार देते हुए कहा कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता को सुनिश्चित करने के लिए वर्तमान में जजों की नियुक्ति का कार्य कॉलेजियम प्रणाली के अंतर्गत ही किया जाना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि NJAC के गठन से न्यायपालिका में हस्तक्षेप होगा और इससे न्यायिक स्वतंत्रता पर विपरीत प्रभाव पड़ सकता है।
वर्तमान में, 10 साल बाद NJAC पर पुनः चर्चा उठी है। हालांकि, 2014 के समय की तरह विपक्षी दलों में अब सरकार के साथ एकरूपता देखने को नहीं मिल रही है। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कहा है कि NJAC को जानबूझकर उठाया जा रहा है ताकि न्यायपालिका के मौजूदा ढांचे में बदलाव किया जा सके। वहीं, TMC और अन्य विपक्षी दलों ने भी इस मुद्दे पर अलग-अलग राय रखते हुए इसे राजनीतिक दांवपेंच का हिस्सा बताया है।
उपराष्ट्रपति धनखड़ का बयान
राज्यसभा में उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने भी NJAC का मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि यदि NJAC लागू हो जाता है, तो चीजें पूरी तरह से अलग हो जाएंगी। धनखड़ ने यह भी कहा कि संविधान संशोधन की न्यायिक समीक्षा के लिए कोई प्रावधान नहीं है, और 2015 में पारित कानून को राष्ट्रपति द्वारा प्रमाणित किया गया था। उन्होंने जोर देकर कहा कि यदि इस मुद्दे को पुनः उठाया जाता है तो यह न केवल न्यायपालिका में बल्कि पूरे देश में संवैधानिक ढांचे पर भी सवाल उठाएगा।
NJAC बनाम कॉलेजियम: भविष्य की राह
वर्तमान में, न्यायपालिका में नियुक्ति की प्रक्रिया में सुधार के लिए विभिन्न विचार सामने आ रहे हैं। कुछ दल NJAC को एक बेहतर विकल्प मानते हैं, जबकि अन्य का तर्क है कि कॉलेजियम प्रणाली में सुधार की बजाय इसे ही कायम रखा जाना चाहिए। जो लोग NJAC के पक्ष में हैं, उनका मानना है कि इसमें पारदर्शिता, संतुलन और सामाजिक प्रतिनिधित्व की संभावनाएँ हैं। दूसरी ओर, आलोचकों का कहना है कि NJAC से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर असर पड़ेगा और यह मौजूदा सिस्टम में अनावश्यक राजनीतिक हस्तक्षेप ला सकता है।
कॉलेजियम प्रणाली को बदलने के लिए संविधान संशोधन की जरूरत होगी, जिसके लिए संसद के दोनों सदनों और राज्य विधानसभाओं का सहयोग आवश्यक होगा। यह प्रक्रिया जितनी जटिल होगी, उतना ही राजनीतिक संघर्ष और कानूनी चुनौतियाँ सामने आएंगी।
आज की यह चर्चा NJAC और कॉलेजियम प्रणाली के बीच के मतभेदों को उजागर करती है। जबकि सरकार का कहना है कि NJAC न्यायिक नियुक्ति में पारदर्शिता और संतुलन लाने में सहायक होगा, सुप्रीम कोर्ट और कई राजनीतिक दल इसे न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप मानते हैं। उपराष्ट्रपति धनखड़, तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा और अन्य नेताओं ने इस मुद्दे पर विभिन्न दृष्टिकोण व्यक्त किए हैं, जिससे यह स्पष्ट होता है कि न्यायिक नियुक्ति के तरीके में बदलाव सिर्फ कानूनी प्रक्रिया नहीं बल्कि राजनीतिक समीकरणों से भी प्रभावित है।
इस पूरे विषय पर विचार-विमर्श जारी है और आने वाले दिनों में यह देखना रोचक होगा कि न्यायपालिका में सुधार के लिए कौन सा मॉडल अपनाया जाता है और क्या न्यायिक स्वतंत्रता की रक्षा करते हुए न्यायिक नियुक्ति प्रणाली में संतुलन बनाना
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