‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ का तमिलनाडु के सीएम एम स्टालिन कर रहे विरोध
दक्षिण भारत, विशेष रूप से तमिलनाडु, में भाषा का विवाद कोई नई बात नहीं है। यह एक ऐसा मुद्दा है जो औपनिवेशिक काल से लेकर आज तक समय-समय पर उभरता रहा है। हाल के दिनों में तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन के बयानों और केंद्र सरकार की नीतियों के खिलाफ उनके तीखे विरोध ने इस विवाद को फिर से सुर्खियों में ला दिया है। इस मुद्दे पर ताजा बयानबाजी क्या हो रही है, तमिलनाडु सरकार और केंद्र सरकार इस मुद्दे पर कैसे आमने सामने है.. देश में खासतौर पर दक्षिण भारत में कब से हिंदी को लेकर विवाद है… क्या है इसके पीछे की असल वजह..क्या वाकई राष्ट्रीय एकता और अखंडता का ये मुद्दा है..या फिर इसके पीछे की असल लड़ाई कुछ और है…इन तमाम सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की है इस रिपोर्ट में…

केंद्र और तमिलनाडु सरकार एक बार फिर आमने सामने है. मामला इस बार भाषाई विवाद है, इस विवाद ने अब इतना तूल पकड़ लिया है कि मामला फंडिंग रोकने तक जा पहुंचा है. अब पहले से ही कम पैसे देने का आरोप लगाने वाली तमिलनाडु सरकार एक कदम आगे बढ़ गई है. उसने इस बार पलट कर केंद्र से पूछा है कि अगर वह अपने राज्य का टैक्स का हिस्सा केंद्र को भेजना बंद कर दे तो फिर क्या होगा. सीएम स्टालिन यहीं नहीं रूके उन्होंने कहा कि हिंदी मखौटा है, हिंदी ने पिछले 100 वर्ष में उत्तर भारत की 25 भाषाओं को खत्म कर दिया है। सीएम स्टालिन आगे कहते हैं AI और एडवांस टेक्नोलॉजी के दौर में छात्रों पर अन्य भाषा का बोझ डालना ठीक नहीं है। प्रगति इनोवेशन में है, भाषा थोपने में नहीं। बीजेपी नेता कहते हैं कि उत्तर भारत में रोजमर्रा की जिंदगी में हिंदी जानना बहुत जरूरी है, लेकिन इसे AI ने बना दिया है। उन्होंने राज्य की जनता नाम सोशल मीडिया पर एक वीडियो भी पोस्ट किया।
सीएम एम के स्टालिन ने ये कहा
”तमिलनाडु आज दो महत्वपूर्ण चुनौतियों का सामना कर रहा है। पहला भाषा की लड़ाई, जो हमारी पहचान है और दूसरा हमारे निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन, जो हमारा अधिकार है। मैं आपसे आग्रह करता हूं कि आप हमारी लड़ाई को लोगों तक पहुंचाएं। निर्वाचन क्षेत्रों का डिलिमिटेशन हमारे राज्य के आत्म-सम्मान, सामाजिक न्याय और लोगों के कल्याणकारी योजनाओं को प्रभावित करता है। हर व्यक्ति को अपने राज्य की रक्षा के लिए खड़ा होना चाहिए।”
दरअसल तमिलनाडू में त्रिभाषा फॉर्मूले पर विवाद के सुर उठने पर पिछले दिनों केंद्रीय शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा था कि त्रिभाषा फॉर्मूला नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अभिन्न अंग है। तमिलनाडु को इसे लागू करना ही पड़ेगा वरना उसे संघीय सरकार की तरफ़ से पैसा नहीं मिलेगा. ऊपर से यह बात ठीक भी लगती है क्योंकि अगर कोई राज्य किसी ‘राष्ट्रीय’ नीति को लागू न करे तो उसे ‘केंद्र’ से पैसे की उम्मीद भी नहीं करनी चाहिए. सीएम स्टालिन निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन का भी विरोध कर रहे हैं. जबकि उनकी इस आशंका पर केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ये भरोसा दे चुके हैं कि परिसीमन से सीटों की संख्या में कोई कमी नहीं होगी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी वादा किया है कि परिसीमन से किसी भी दक्षिणी राज्य पर असर नहीं पड़ेगा।
आइए आपको बताते हैं कि त्रिभाषा फॉर्मूला क्या है जिसका तमिलनाडु सरकार विरोध कर रही है. (GFX IN) नई शिक्षा नीति 2020 के तहत देश के सभी सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में तीन भाषाएं सिखाई जाएंगी. पहली भाषा विद्य़ार्थी की मातृभाषा या स्थानीय भाषा या फिर क्षेत्रीय भाषा होगी. दूसरी भाषा हिंदी या राज्य की दूसरी भारतीय भाषा होगी. जबकि तीसरी भाषा अंग्रेजी या कोई अन्य या फिर विदेशी भाषा पढ़ाई जा सकती है। लेकिन नई शिक्षा नीति में किसी भाषा को अनिवार्य नहीं किया गया है। राज्यों और स्कूलों को यह तय करने की आजादी है कि वे कौन-सी 3 भाषाएं पढ़ाना चाहते हैं।
ये है त्रिभाषा फॉर्मूला
- –देश के सभी सरकारी और प्राइवेट स्कूलों में तीन भाषाएं सिखाई जाएंगी
- –पहली भाषा विद्यार्थी की मातृभाषा या स्थानीय भाषा या फिर क्षेत्रीय भाषा होगी
- –दूसरी भाषा हिंदी या राज्य की दूसरी भारतीय भाषा होगी
- –तीसरी भाषा अंग्रेजी या कोई अन्य या फिर विदेशी भाषा पढ़ाई जा सकती है
- -NEP 2020 में किसी भी भाषा को अनिवार्य नहीं किया गया
- –राज्यों और स्कूलों को तय करने की आजादी है
संविधान की 8वीं अनुसूची
- 22 भाषाओं को किया गया शामिल
- असमिया, बंगाली, गुजराती, हिंदी, कन्नड, कश्मीरी
- कोंकणी, मलयालम, मणिपुरी, मराठी, नेपाली, उड़िया
- पंजाबी, संस्कृत, सिंधी, तमिल, तेलुगू, उर्दू, बोडो
- 14 भाषा शुरू से ही संविधान में शामिल थी
- साल 1967 में सिंधी भाषा को जोड़ा गया
- 1992 में कोंकणी, मणिपुरी, और नेपाली को जोड़ा
- 2003 में बोडो, डोगरी, मैथिली, संथाली भाषा को जोड़ा
- हिंदी को राष्ट्रभाषा नहीं राजभाषा का दर्जा है
दरअसल सीएम स्टालिन का हिंदी विरोध तो एक बहाना है, 2026 के विधानसभा चुनाव पर निशाना है. राजनीतिक विश्लेषकों का मानना है कि सीएम स्टालिन आगामी विधानसभा चुनाव में हिंदी विरोध के साथ-साथ परिसीमन में सीटें कम होने की आशंका को बड़ा मुद्दा बनाना चाहते हैं. इसके लिए डीएमके ने पांच मार्च को सर्वदलीय बैठक भी बुलाई है। दक्षिण की राजनीति हिंदी विरोध पर टिकी है। ऐसे में जो पार्टी परिसीमन का समर्थन करेगी, डीएमके जानबूझकर उस मुद्दे को भाषाई विवाद बनाएगी। अब सवाल ये है कि बीजेपी और उसकी समर्थक पार्टियां इस भाषाई तिकड़मी चाल को कैसे हैंडल करती है।
मुख्य पाइंट:
सियासत की लड़ाई, ‘त्रिभाषा फॉर्मूले’ पर आई
दक्षिण भारत में फिर भड़का भाषाई विवाद
तमिलनाडु बनाम केंद्र सरकार की नई तकरार
नॉर्थ-साउथ का भाषा विवाद, हिंदी फिर बनी हथियार
सीएम एम स्टालिन परिसीमन पर भी नहीं तैयार
हिंदी विरोध बहाना है, राजनीतिक किला बचाना है?
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