BY: Yoganand Shrivastva
स्टार रेटिंग: ★★☆☆☆ (2.5/5)
रिलीज़ डेट: 24 जून 2025
स्ट्रीमिंग प्लेटफॉर्म: अमेज़न प्राइम वीडियो
निर्देशक: दीपक कुमार मिश्रा
लेखक: चंदन कुमार
शैली: कॉमेडी-ड्रामा
TVF की चर्चित वेब सीरीज़ पंचायत का चौथा सीज़न रिलीज़ हो चुका है और दर्शकों को उम्मीद थी कि यह पिछली किस्त की निराशा के बाद सीरीज़ की मूल आत्मा को फिर से जीवंत करेगा। मगर चौथा सीज़न न तो नई ऊर्जा के साथ आया, न ही पहले दो सीज़नों वाली मासूमियत और गहराई को पकड़ पाया।
कहानी: सियासी उलझनों में उलझा फुलेरा
इस बार की कहानी पंचायत चुनावों के इर्द-गिर्द घूमती है। एक ओर मौजूदा प्रधान मंजू देवी (नीना गुप्ता) हैं, दूसरी ओर हैं नई दावेदार क्रांति देवी, जिनका साथ देते हैं उनके पति भूषण (दुर्गेश कुमार)। सचिव जी (जितेंद्र कुमार) एक बार फिर राजनीतिक और व्यक्तिगत उथल-पुथल के बीच फंसे नजर आते हैं — IIM में दाखिले का इंतजार, करियर को लेकर असमंजस और एक अधूरी प्रेम कहानी।
पिछले सीज़न के समापन पर भूषण को थप्पड़ मारने की घटना इस बार की कहानी की शुरुआत का आधार बनती है, जिससे आगे प्रशासनिक शिकायतें और कानूनी दांवपेच निकलते हैं। इस बार फुलेरा का सियासी तापमान चढ़ा हुआ है, लेकिन साथ ही सीरीज़ की पकड़ ढीली और दिशा भ्रमित नज़र आती है।
निर्देशन और लेखन: गहराई की कमी
दीपक कुमार मिश्रा का निर्देशन और चंदन कुमार की स्क्रिप्ट इस बार अपेक्षा पर खरी नहीं उतरती। ग्रामीण जीवन का वो सहज हास्य और संवेदना, जो सीरीज़ की पहचान थी, कहीं गायब हो गया है। महिला किरदारों की उपस्थिति सीमित रही है और पुरुष पात्रों की हरकतें कई बार बनावटी लगती हैं।
कहानी में राजनीतिक टकराव तो है, लेकिन भावनात्मक जुड़ाव नहीं बनता। कुछ सीन खींचे हुए और अनावश्यक लगते हैं, जिनमें कोई नया या चौंकाने वाला मोड़ नहीं दिखता।
संगीत: इस बार कोई सुर नहीं जमा
पिछले सीज़नों में जो संगीत भावनाओं को उभारता था, वह इस बार फीका रहा। न कोई नया यादगार गीत, न ही पुराने गानों का दोबारा उपयोग असर छोड़ पाया।
अभिनय: कलाकारों की मेहनत ही सहारा
इस सीज़न की सबसे बड़ी ताकत इसके कलाकार हैं। जितेंद्र कुमार ने एक बार फिर सचिव जी के किरदार में जान डाली है। फैसल मलिक (प्रह्लाद) अपनी इमोशनल टाइमिंग से ध्यान खींचते हैं। रघुबीर यादव का अभिनय दमदार है, लेकिन उनका किरदार थोड़ा बनावटी लगा। नीना गुप्ता जैसी सशक्त अदाकारा को इस बार सीमित स्क्रीन्सपेस मिला, जो खलता है। संविका (रिंकी) को पहले से थोड़ा बेहतर अवसर मिला है, जबकि स्वानंद किरकिरे की एंट्री कोई खास छाप नहीं छोड़ पाई।
निष्कर्ष: फुलेरा तो वही है, मगर आत्मा गायब है
‘पंचायत 4’ से उम्मीद थी कि यह सीरीज़ अपने पुराने जादू को फिर जगा पाएगी, लेकिन कहानी चुनावी राजनीति में उलझ कर रह गई। न रिश्तों में पहले जैसी गर्माहट रही, न हास्य में गहराई। फुलेरा की गलियां अब भी वही हैं, लेकिन वो अपनापन और मासूमियत जैसे धुंध में खो गए हैं।
यदि आप ‘पंचायत’ के पुराने फैन हैं, तो इसे एक बार देखा जा सकता है। लेकिन उम्मीदें थोड़ी कम रखें, क्योंकि यह सीज़न बार-बार देखने लायक असर नहीं छोड़ता।