क्या राणा सांगा पर विवाद 2027 चुनाव से पहले बहुजन ध्रुवीकरण की शुरुआत है ?
BY: Vijay Nandan
सपा सांसद रामजी सुमन द्वारा राणा सांगा को लेकर दिए गए विवादास्पद बयान ने यूपी की राजनीति में एक नई बहस को जन्म दे दिया है। जहां एक ओर इसे “इतिहास से छेड़छाड़” बताकर विपक्षी दल सपा को घेर रहे हैं, वहीं दूसरी ओर यह पूरा घटनाक्रम 2027 के विधानसभा चुनावों से पहले सामाजिक आधारों के पुनर्गठन की संभावित रणनीति की ओर भी इशारा करता है।

बयान से उपजे सियासी तूफान की ज़मीन क्या सिर्फ इतिहास है?
रामजी सुमन का बयान केवल ऐतिहासिक समीक्षा नहीं था। यह उन विमर्शों को हवा देने की कोशिश थी जो पिछड़े, दलित और आदिवासी समाज को यह सोचने पर मजबूर करें कि इतिहास में उनका स्थान कहां था और आज उन्हें किस तरह की भूमिका निभानी चाहिए। ठीक इसी तरह का विमर्श मायावती ने अपने शुरुआती दौर में उठाया था — बहुजन इतिहास की पुनर्खोज।
राजनीतिक गोलबंदी की तैयारी
सवाल यह उठता है कि क्यों अभी? क्यों 2025 में राणा सांगा जैसे ऐतिहासिक चरित्र पर टिप्पणी की जा रही है?
इसका जवाब छिपा है 2027 के विधानसभा चुनावों की सामाजिक समीकरणों में। सपा को यह बखूबी समझ में आ गया है कि सिर्फ मुस्लिम-यादव समीकरण से अब सत्ता में वापसी मुश्किल है। उसे दलित और ओबीसी समुदायों के एक बड़े वर्ग को भी अपने पाले में लाना होगा।
रामजी सुमन स्वयं एक दलित सांसद हैं, और उनका बयान कहीं न कहीं उन सामाजिक नारों की ओर संकेत करता है जो दलित-ओबीसी एकता की बात करते हैं — “जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी”।
बीजेपी का प्रतिउत्तर और सवर्ण भावनाओं की सियासत
रामजी सुमन के बयान पर भाजपा का तीखा पलटवार कोई संयोग नहीं है। भाजपा को यह भलीभांति मालूम है कि इस तरह के बयानों से सवर्ण समुदाय में रोष उत्पन्न होता है, जिसे वह एक भावनात्मक मुद्दे के रूप में भुनाना चाहती है।
बीजेपी ने पहले भी देखा है कि रामचरितमानस, सावरकर या मनुस्मृति जैसे मुद्दों पर जब विपक्ष ने बयान दिए, तो उन्हें पलट कर हिंदू एकता का मुद्दा बना दिया गया। राणा सांगा, महाराणा प्रताप या शिवाजी जैसे प्रतीकों पर हमला बीजेपी के लिए “गौरव की रक्षा” का मुद्दा बन सकता है।
दलित-ओबीसी विमर्श और राजनीतिक ध्रुवीकरण
हाल के वर्षों में दलित और ओबीसी समाज के बीच एक नई आत्मचेतना उभरी है। सोशल मीडिया पर बहुजन विमर्श लगातार मज़बूत हो रहा है। ऐसे में राजनीतिक दल इस बढ़ती चेतना को अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश कर रहे हैं।
रामजी सुमन का बयान इस विमर्श को न केवल हवा देता है बल्कि राजनीतिक दलों को यह संकेत भी देता है कि अब “चुप बहुजन” नहीं रहेगा। यह वर्ग अब अपनी ऐतिहासिक भूमिका और वर्तमान पहचान दोनों पर सवाल करेगा।
2027 की संभावित दिशा
यदि इस विवाद को सिर्फ बयान तक सीमित मान लें, तो हम राजनीतिक रणनीति की उस गहराई को नहीं समझ पाएंगे जो यूपी की राजनीति में चल रही है। यह पूरा विवाद एक बड़ी स्क्रिप्ट का हिस्सा हो सकता है — जिसमें सपा, बसपा और यहां तक कि कांग्रेस भी बहुजन राजनीति के नए फॉर्मूले को आजमाने की तैयारी में हैं।
रामजी सुमन का बयान एक अकेली आवाज नहीं है, बल्कि वह एक बड़ी रणनीतिक सोच का हिस्सा है जो 2027 में यूपी की राजनीति की दशा और दिशा तय कर सकती है। इसमें इतिहास, अस्मिता, और सामाजिक न्याय के मुद्दों को मिलाकर वोट बैंक की नई रचना की कोशिश की जा रही है।
अब देखना यह है कि यह विमर्श जन समर्थन में बदलता है या फिर राजनीतिक विरोध की आग में जलकर सिर्फ एक “बयानवीर” की भूल बनकर रह जाता है।