एक अनजानी सी दहशत, किसी अनहोनी का डर, हर उस मां-बाप को बना रहता है, जिसके घर में बेटियां हैं।देश में बेटियों की सुरक्षा को लेकर भले ही तमाम दावे किए जाएं।लेकिन कड़वी हकीकत यही है कि बेटियां सुरक्षित नहीं हैं। आए दिन मीडिया के माध्यम से महिलाओं, बच्चियों के विरुद्ध होने वाले अत्याचारों, अपराधों और यौन हमलों के समाचार सुनने-पढऩे को मिलते रहते हैं।ऐसे में सबका यही सवाल होता है कि आज समाज में हमारी बेटियां कितनी सुरक्षित हैं।
साल 2012 में निर्भया कांड ने देश की अंतरात्मा को झकझोर कर रख दिया था। उसके बाद यौन हिंसा से जुड़े कानूनों को सख्त बनाया गया। दोषियों को कठोरतम सजा से दंडित भी किया गया था, लेकिन लगता है कि दिल्ली की निर्भया का बलिदान व्यर्थ चला गया। आज के सामाजिक परिवेश में घर परिवार ही लोग, स्कूल, कॉलेज आस-पड़ोस कहीं कोई भी ऐसा स्थान नहीं है, जहां महिलाएं और बच्चियां सुरक्षित हों।
नाबालिग, किशोरी 6 महीने से लेकर 2 साल, 3 साल, 9-10 साल की बच्चियों के साथ भी दरिंदगी की घटनाएं लगातार सामने आ रही हैं। क्या हमारा सामाजिक ताना बाना इतना बिगड़ गया है कि इस तरह की घटनाओं पर न समाजिक अंकुश लग पा रहा है। न अपराधियों को कानून का डर रह गया है। आखिर किसे जिम्मेदार माना जाए इस तरह की घटनाओ के लिये। क्यों कड़े कानून बनाए जाने के बावजूद बच्चियों के प्रति ऐसे में घिनौने और संगीन अपराधों पर लगाम नहीं लग पा रही है। समाजिक जागरुकता या कठोर कानून का हमारे समाज में आखिर परिवर्तन क्यों नजर नहीं आ रहा।