उत्तर प्रदेश की सियासत में एक बार फिर जातीय तनाव अपने चरम पर है। इटावा में कथावाचकों के साथ हुई घटना ने न सिर्फ सामाजिक माहौल गरमा दिया है, बल्कि सियासी दलों की रणनीति पर भी गहरा असर डाला है। समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख अखिलेश यादव खुलकर पीड़ित कथावाचकों के पक्ष में आ गए हैं, लेकिन उनके ‘ब्राह्मण वर्चस्व’ वाले बयान से यह सवाल उठने लगा है कि क्या यह विरोध उनकी पार्टी को फायदा देगा या नुकसान?
क्या हुआ इटावा में?
इटावा के दांदरपुर गांव में कथित तौर पर यादव समुदाय के कथावाचकों के साथ अभद्रता की गई। आरोप है कि कथावाचकों की जाति पूछकर उनकी पिटाई की गई, सिर मुंडवाया गया, चुटिया काट दी गई और यहां तक कि मूत्र तक छिड़का गया। इस पूरे मामले में ब्राह्मण समुदाय के लोगों पर आरोप लगाए गए हैं।
इस घटना ने राज्य की सियासत में जातीय जहर घोल दिया है। सपा प्रमुख अखिलेश यादव ने इसे खुलकर उठाया और ब्राह्मणों पर ‘प्रभुत्ववादी’ और ‘वर्चस्ववादी’ होने का आरोप जड़ दिया।
अखिलेश यादव का तीखा हमला
अखिलेश यादव ने कहा कि यदि सच्चे कृष्ण भक्तों को कथा कहने से रोका जाएगा, तो यह अपमान कोई नहीं सहेगा। उन्होंने यहां तक चुनौती दी कि जो प्रभुत्ववादी लोग खुद को सर्वोपरि मानते हैं, वे घोषणा करें कि वे पीडीए (पिछड़े, दलित, अल्पसंख्यक) समाज द्वारा दिया गया दान और चढ़ावा स्वीकार नहीं करेंगे।
इसके बाद अहीर रेजिमेंट और यादव संगठनों ने ब्राह्मणों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है। सवाल यह है कि क्या सपा का यह ‘एंटी ब्राह्मण कार्ड’ उनके लिए सियासी संकट खड़ा कर सकता है?
यूपी में ब्राह्मण वोट बैंक कितना अहम?
उत्तर प्रदेश की राजनीति में ब्राह्मण समुदाय की भूमिका बेहद निर्णायक रही है। आंकड़ों पर नजर डालें तो:
- राज्य में करीब 10% ब्राह्मण मतदाता हैं।
- लगभग 100 विधानसभा सीटों पर ब्राह्मण वोटर हार-जीत तय करते हैं।
- इन सीटों में वाराणसी, गोरखपुर, बलिया, रायबरेली, कानपुर, प्रयागराज समेत कई बड़े जिले शामिल हैं।
इतिहास गवाह है कि जिस दल के साथ ब्राह्मण वोट बैंक गया, अक्सर उसी की सरकार बनी है।
ब्राह्मणों का सियासी सफर
- लंबे समय तक ब्राह्मण समुदाय कांग्रेस के साथ रहा।
- 1989 के बाद राम मंदिर आंदोलन और मंडल-कमंडल राजनीति के दौर में भाजपा ने ब्राह्मणों को जोड़ा।
- 2007 में मायावती ने ब्राह्मण सम्मेलनों के जरिए बड़ा वर्ग अपने पक्ष में किया और पहली बार पूर्ण बहुमत की सरकार बनाई।
- 2012 में सपा की जीत में भी ब्राह्मण वोट का अहम योगदान रहा।
- लेकिन 2017 के चुनाव में 83% ब्राह्मणों ने भाजपा को वोट दिया, जबकि सपा को सिर्फ 7% ब्राह्मण वोट मिले।
- 2022 में यह आंकड़ा और बढ़कर 89% ब्राह्मण वोट भाजपा को मिले।
सपा और ब्राह्मणों का समीकरण
भले ही सपा पर ‘यादव-पार्टी’ का ठप्पा हो, लेकिन पार्टी ने ब्राह्मणों को साधने की कोशिश की है:
- मुलायम सिंह यादव के बाद पार्टी में जनेश्वर मिश्रा जैसे बड़े ब्राह्मण नेता रहे।
- 2022 के विधानसभा चुनाव में सपा ने 5 ब्राह्मण विधायकों को जिताया।
- लोकसभा चुनाव में सपा ने 4 ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे, जिनमें से बलिया से सनातन पांडेय संसद पहुंचे।
अखिलेश यादव ने कई मौकों पर संतुलन साधने की कोशिश की, जैसे देवरिया में प्रेम यादव की हत्या और ब्राह्मण परिवार की लिंचिंग मामले में दोनों पक्षों से मिलने का प्रयास।
इटावा कांड से क्या सपा को नुकसान हो सकता है?
इटावा घटना के बाद अखिलेश यादव के बयानों से ब्राह्मण समुदाय में असंतोष गहराता नजर आ रहा है। राजनीतिक जानकार मानते हैं कि:
✔ जातीय ध्रुवीकरण भाजपा के लिए फायदेमंद हो सकता है।
✔ ब्राह्मणों की नाराजगी सपा को सीटों पर सीधा नुकसान पहुंचा सकती है।
✔ यादव और ब्राह्मणों के बीच तनाव का फायदा भाजपा उठा सकती है।
सपा की मुश्किल यह है कि पीडीए (पिछड़ा, दलित, अल्पसंख्यक) समीकरण साधते-साधते ब्राह्मण वोट बैंक दूर न चला जाए।
क्या अखिलेश की रणनीति बैलेंस करने में फेल हो रही है?
अखिलेश यादव अक्सर खुद को सभी वर्गों का हितैषी बताने की कोशिश करते हैं, लेकिन इटावा कांड में उन्होंने सीधे-सीधे ब्राह्मणों पर तीखा हमला बोला। इससे सपा की ‘संतुलन’ वाली राजनीति कमजोर होती दिख रही है।
राजनीतिक विश्लेषकों की मानें तो यूपी में सत्ताविरोधी लहर खड़ी करने के लिए सपा को ब्राह्मणों को साथ जोड़ना जरूरी है। लेकिन वर्तमान हालात में सपा और ब्राह्मणों के रिश्तों में खटास बढ़ती दिख रही है।
निष्कर्ष: सपा के लिए दोधारी तलवार बन सकता है इटावा कांड
इटावा की घटना को अखिलेश यादव ने राजनीतिक मुद्दा जरूर बना दिया है, लेकिन इसका फायदा और नुकसान दोनों हो सकता है।
जहां एक ओर यादव वोट बैंक सपा के साथ मजबूत होता दिख रहा है, वहीं दूसरी ओर ब्राह्मणों की नाराजगी पार्टी के लिए 2027 के चुनाव में बड़ी चुनौती बन सकती है।
अब देखना दिलचस्प होगा कि अखिलेश यादव अपनी बयानबाजी पर कायम रहते हैं या रणनीति बदलकर ‘ब्राह्मण कार्ड’ को संभालने की कोशिश करते हैं।