इफ्तार का वो राज़ जो शहरों ने छुपा लिया!

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इफ्तार का अनदेखा रंग: भारत के गाँवों की खोई हुई परंपराएँ

सूरज ढलते ही जब आसमान में नारंगी और गुलाबी रंगों की छटपटाहट शुरू होती है, उस वक्त भारत के गाँवों में एक अलग ही रौनक छा जाती है। रमज़ान का महीना, जो रोज़े और इबादत का प्रतीक है, शहरों की चकाचौंध से दूर इन गाँवों में एक अनोखा रूप लेता है। यहाँ इफ्तार सिर्फ रोज़ा खोलने का वक्त नहीं, बल्कि पीढ़ियों से चली आ रही उन परंपराओं का उत्सव है, जो अब धीरे-धीरे वक्त की धूल में दबती जा रही हैं। आइए, एक कहानी के ज़रिए इन खोई हुई रीतियों की सैर करें, जहाँ मिट्टी की खुशबू, लोकगीतों की धुन, और स्थानीय स्वाद इफ्तार को एक अलग रंग देते हैं।

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गाँव की गलियों में इफ्तार की तैयारी

चाँदनी रात में एक छोटे से गाँव की तस्वीर बनाइए। उत्तर प्रदेश के किसी दूरदराज इलाके में, जहाँ बिजली की रोशनी कम और सितारों की चमक ज़्यादा है। यहाँ के लोग रमज़ान के हर दिन को खास बनाने में जुटे हैं। दोपहर ढलते ही हाजी साहब की छोटी-सी हवेली के आँगन में चहल-पहल शुरू हो जाती है। हाजी साहब की बेटी रुकसाना और पड़ोस की चachi मिट्टी के पुराने बर्तनों को धो रही हैं—वही कूँड़े और परातें, जो उनकी दादी के ज़माने से चले आ रहे हैं। ये बर्तन सिर्फ खाना परोसने के लिए नहीं, बल्कि एक याद की तरह हैं, जो हर इफ्तार में पुरखों की मौजूदगी को महसूस कराते हैं।

शहरों में जहाँ स्टील और कांच के बर्तनों ने जगह ले ली है, इन गाँवों में मिट्टी का ठंडापन और उसकी सौंधी खुशबू अब भी जिंदा है। रुकसाना बताती है, “हमारे यहाँ कहते हैं कि मिट्टी के बर्तन में खाना खाने से रोज़े की थकान कम होती है। ये पुरानी बातें हैं, पर सच लगती हैं।” मगरिब की अज़ान से पहले ये बर्तन तरह-तरह के व्यंजनों से भर जाते हैं—चना, पकौड़े, सत्तू का शरबत, और कुछ ऐसा जो शायद शहरों में न मिले।

खजूर की जगह गाँव का स्वाद

अज़ान की आवाज़ गूँजते ही सब दरी पर बैठ जाते हैं। लेकिन यहाँ खजूर की वो आम परंपरा थोड़ी अलग दिखती है। हाजी साहब मुस्कुराते हुए कहते हैं, “हमारे गाँव में खजूर तो बाद में आए, पहले लोग जो पेड़-पौधों से मिलता, उसी से रोज़ा खोलते थे।” यहाँ के बुजुर्ग बताते हैं कि पहले लोग जामुन, बेर, या फिर गर्मियों में आम से रोज़ा खोलते थे। गाँव के पास बहने वाली नदी के किनारे उगने वाले जंगली फल आज भी कुछ घरों में इफ्तार की शुरुआत बनते हैं।

रुकसाना की छोटी बहन नाज़िया एक मिट्टी की कटोरी में जामुन लाती है। “खजूर तो अब हर जगह मिलते हैं, पर जामुन की खटास और मिठास में कुछ और ही बात है,” वो हँसते हुए कहती है। ये स्थानीय फल न सिर्फ रोज़ा खोलने का ज़रिया हैं, बल्कि गाँव की मिट्टी और मौसम से जुड़ाव का सबूत भी। ये छोटी-छोटी चीज़ें शहरों की एकरसता से अलग, गाँवों के इफ्तार को खास बनाती हैं।

लोकगीतों में बसी रमज़ान की रूह

इफ्तार के बाद जब पेट भर जाता है और दिल में सुकून उतरता है, तब गाँव की औरतें और बच्चे आँगन में जमा हो जाते हैं। यहाँ कोई रेडियो या टीवी नहीं, पर एक धुन गूँजती है—लोकगीतों की। ये गीत रमज़ान के लिए खास हैं, जो नई पीढ़ी तक कम ही पहुँच पाए हैं। एक बुजुर्ग महिला, बीबी फातिमा, अपनी कर्कश पर मधुर आवाज़ में गाना शुरू करती हैं:

“चाँद निकला रमज़ान का, रोज़े लाया साथ में,
दुआ करें सब मिलके, अल्लाह रखे हाथ पे।”

ये गीत कोई लिखी हुई कविता नहीं, बल्कि गाँव की ज़िंदगी का हिस्सा हैं। कभी सहरी के लिए जागते हुए, तो कभी इफ्तार की खुशी में, ये धुनें गाँव की गलियों में गूँजती थीं। बच्चे ताली बजाते हैं, और कुछ औरतें मिट्टी के छोटे ढोलक पर थाप देती हैं। ये संगीत सिर्फ मनोरंजन नहीं, बल्कि एक रूहानी एहसास है, जो रोज़े की मेहनत को हल्का कर देता है।

मिट्टी और मेहनत का मेल

गाँव का इफ्तार सिर्फ खाने-पीने तक सीमित नहीं। ये एक सामूहिक उत्सव है, जहाँ हर हाथ कुछ न कुछ जोड़ता है। पास के खेतों से लाए गए सत्तू को पीसकर शरबत बनाया जाता है, और गाँव की मिट्टी से बने भट्टियों पर पकौड़े तले जाते हैं। एक तरफ बच्चे जामुन तोड़ने में लगे हैं, तो दूसरी तरफ बड़े मिट्टी के बर्तनों में खीर तैयार कर रहे हैं। ये सब मिलकर एक ऐसी तस्वीर बनाते हैं, जो शहरों की जल्दबाज़ी से कोसों दूर है।

हाजी साहब याद करते हैं, “पहले गाँव में इफ्तार के लिए मस्जिद में सब इकट्ठा होते थे। हर घर से कुछ न कुछ आता था—कोई खीर लाता, कोई फल, कोई पकौड़े। मिट्टी के बर्तनों में सब मिलाकर बाँटा जाता। वो मोहब्बत का स्वाद आज भी याद आता है।” ये परंपरा अब कम होती जा रही है, क्योंकि नई पीढ़ी शहरों की तरफ भाग रही है, और मिट्टी के बर्तनों की जगह प्लास्टिक ने ले ली है।

खोता हुआ रंग और उम्मीद की किरण

आज के ज़माने में गाँव भी बदल रहे हैं। बिजली के बल्ब सितारों को फीका कर रहे हैं, और लोकगीतों की जगह मोबाइल की रिंगटोन सुनाई देती है। मिट्टी के बर्तन अब सिर्फ कुछ घरों में बचे हैं, और खजूर ने स्थानीय फलों को पीछे छोड़ दिया। लेकिन इन सबके बीच उम्मीद अभी बाकी है। रुकसाना और नाज़िया जैसे नौजवान अब इन परंपराओं को सहेजना चाहते हैं। “हम चाहते हैं कि हमारे बच्चे भी ये स्वाद और ये गीत जानें। ये हमारी जड़ें हैं,” रुकसाना कहती है।

रमज़ान का इफ्तार भारत के गाँवों में सिर्फ एक धार्मिक रिवाज़ नहीं, बल्कि एक कहानी है—मिट्टी की महक, लोकगीतों की गूँज, और स्थानीय फलों के स्वाद की कहानी। ये वो रंग हैं, जो शायद किताबों में नहीं मिलेंगे, पर गाँव की हवा में अब भी तैरते हैं। क्या इन खोई हुई परंपराओं को फिर से ज़िंदा किया जा सकता है? शायद हाँ, अगर हम सब मिलकर इसकी कदर करें।

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