भारतीय सिनेमा की आइकॉनिक फिल्म ‘शोले’ 15 अगस्त 2025 को अपने 50 साल पूरे करने जा रही है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि फिल्म का जो क्लाइमैक्स आपने देखा, वो असली नहीं था?
हाल ही में फिल्ममेकर फरहान अख्तर ने इस फिल्म से जुड़ा एक अनसुना राज़ बताया है, जो फिल्म के मूल भाव और कहानी को पूरी तरह बदल सकता था।
क्या था शोले का असली अंत?
फरहान अख्तर ने एक बातचीत में बताया:
“शोले की असली ताकत उसकी भावनात्मक गहराई में थी। असली क्लाइमैक्स में ठाकुर खुद गब्बर को मार देता है। लेकिन उस समय लागू इमरजेंसी के कारण यह एंडिंग बदलनी पड़ी।”
असली क्लाइमैक्स में क्या होता है?
- ठाकुर, जो अपने दोनों हाथ गब्बर के कारण खो चुका था,
- जय और वीरू की मदद से आखिर में गब्बर को पकड़ता है,
- और अपने पैरों से गब्बर को कुचलकर मार देता है।
- इसके बाद वह दर्द और भावनाओं में टूटकर रोने लगता है।
लेकिन फिल्म रिलीज़ से पहले सरकार की सेंसरशिप के कारण यह दृश्य हटा दिया गया और उसकी जगह पुलिस को बुलाकर गब्बर की गिरफ्तारी वाला सीन डाल दिया गया।
जावेद अख्तर और सलीम खान क्यों थे नाराज़?
फरहान अख्तर ने बताया कि उनके पिता जावेद अख्तर, जिन्होंने सलीम खान के साथ मिलकर फिल्म लिखी थी, इस बदलाव से खुश नहीं थे।
“पापा और सलीम साहब कहते थे – अब तो गांववाले, पुलिस सब आ गए, बस पोस्टमैन ही आना बाकी रह गया था।”
इसका मतलब था कि क्लाइमैक्स में जो इमोशनल स्ट्रेंथ थी, वो पुलिस के आ जाने से कमज़ोर हो गई।
‘शोले’ की कहानी और किरदार
- जय – अमिताभ बच्चन
- वीरू – धर्मेंद्र
- ठाकुर बलदेव सिंह – संजीव कुमार
- गब्बर सिंह – अमजद ख़ान
- बसंती – हेमा मालिनी
- राधा – जया बच्चन
यह कहानी दो अपराधियों की है जिन्हें एक रिटायर्ड पुलिस अफसर, खतरनाक डाकू गब्बर सिंह को पकड़ने के लिए हायर करता है।
शोले की ऐतिहासिक कामयाबी
- फिल्म 15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई थी।
- मुंबई के मिनर्वा थिएटर में लगातार 5 साल तक चली।
- 2014 में इसका 3D वर्जन दोबारा रिलीज किया गया।
- भारत ही नहीं, सोवियत संघ में भी शोले सुपरहिट रही।
- 2002 में ब्रिटिश फिल्म इंस्टीट्यूट ने इसे भारत की सर्वश्रेष्ठ फिल्म कहा।
- 2005 में फिल्मफेयर ने इसे “50 सालों की सबसे बेहतरीन फिल्म” घोषित किया।
शोले सिर्फ एक फिल्म नहीं, एक भावना है
फरहान अख्तर के इस खुलासे ने यह साबित कर दिया कि ‘शोले’ जितनी बड़ी फिल्म थी, उतने ही बड़े समझौते भी इसके पीछे हुए।
अगर उस दौर में इमरजेंसी न होती, तो शायद दर्शकों को एक ऐसा क्लाइमैक्स देखने को मिलता जिसमें बदले की भावना, इंसाफ और दर्द अपने चरम पर होते।