BY: Yoganand Shrivastva
इंदौर। मात्र ₹5.28 की अनियमित वसूली पर एक उपभोक्ता ने 7 साल तक डटकर मुकदमा लड़ा और अंततः उपभोक्ता फोरम ने रिलायंस फ्रेश और सांची दुग्ध संघ के खिलाफ फैसला सुनाया। दोनों कंपनियों को नरेंद्र तिवारी नामक उपभोक्ता को न केवल अतिरिक्त वसूली गई राशि लौटानी होगी, बल्कि मानसिक उत्पीड़न के लिए ₹3,000 और वाद व्यय के रूप में ₹2,000 भी चुकाने होंगे।
घटना की शुरुआत: 5.28 रुपए की अतिरिक्त वसूली
यह मामला 31 मार्च 2018 का है जब एडवोकेट नरेंद्र तिवारी ने इंदौर के ट्रेड सेंटर स्थित रिलायंस फ्रेश स्टोर से 10 रुपये कीमत वाले तीन छाछ पाउच खरीदे। मूल्य होना चाहिए था ₹30, लेकिन उनसे ₹35.28 वसूले गए। जब उन्होंने इस अतिरिक्त राशि पर आपत्ति जताई, तो स्टाफ ने यह कहते हुए पैसे लौटाने से मना कर दिया कि चार्ज बिल में अंकित है और यही नियम है।
नोटिस, शिकायत और फिर फोरम की शरण
तिवारी ने न सिर्फ बिल और छाछ के खाली पाउच संभालकर रखे, बल्कि सांची और रिलायंस को विधिवत नोटिस भी भेजे। दोनों संस्थाओं की ओर से कोई उत्तर न मिलने पर उन्होंने 3 अप्रैल 2018 को नाप-तौल विभाग में शिकायत दर्ज कराई। जब वहां से भी कोई कार्रवाई नहीं हुई, तो आखिरकार 4 अप्रैल 2018 को उपभोक्ता फोरम में शिकायत दायर की।
सुनवाई के दौरान दिए गए तर्क
मामले की 40 से अधिक बार सुनवाई हुई। सुनवाई के दौरान रिलायंस फ्रेश की ओर से निम्न तर्क दिए गए:
- बिल में ग्राहक का नाम नहीं था, इसलिए वह उपभोक्ता की श्रेणी में नहीं आते।
- अतिरिक्त ₹5.28 सेवा शुल्क के रूप में लिए गए थे।
- उत्पाद पर प्रिंट की गई कीमत सांची की थी, रिलायंस की नहीं।
लेकिन फोरम ने इन दलीलों को अस्वीकार कर दिया, क्योंकि किस सेवा के बदले राशि ली गई, इसका कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया गया।
सांची की गैरहाजिरी बनी भारी
इंदौर दुग्ध संघ (सांची) की ओर से न तो फोरम में कोई उपस्थिति दर्ज कराई गई, और न ही नोटिस का उत्तर दिया गया। फलस्वरूप, उपभोक्ता फोरम ने एकतरफा फैसला सुनाते हुए उन्हें भी ₹2.64 की राशि लौटाने और हर्जाने की राशि संयुक्त रूप से भरने का आदेश दिया।
“मुद्दा रकम का नहीं, अधिकारों का है”: तिवारी
नरेंद्र तिवारी का कहना है कि ₹5.28 कोई बड़ी रकम नहीं है, लेकिन दुकानदार और कंपनियाँ ऐसे छोटे-छोटे धोखे से हजारों ग्राहकों से गलत तरीके से पैसे वसूलती हैं। उन्होंने कहा, “यह लड़ाई अधिकारों की थी, और यह फैसला लोगों को जागरूक करेगा कि वे अपने हक के लिए आवाज़ उठाएं।”
7 साल क्यों लगे?
तिवारी ने बताया कि केस में देरी के कई कारण थे:
- हर पेशी के बीच दो से तीन महीने का अंतर।
- कोविड महामारी के दौरान लगभग ढाई साल तक सुनवाई ठप रही।
- कई बार फोरम में पद रिक्त रहे या वकील अनुपस्थित रहे।
इन सभी कारणों ने मामले की प्रक्रिया को लंबा कर दिया, लेकिन अंततः उन्हें न्याय मिला।