भारत के पड़ोसी देशों में “ड्रैगन” की घुसपैठ के क्या मायने?
BY: VIJAY NANDAN
नेपाल में हाल ही में जो कुछ हुआ, उसने पूरे दक्षिण एशिया की राजनीति में हलचल मचा दी है। 18वें गणतंत्र दिवस के दिन काठमांडू की सड़कों पर हजारों लोग राजशाही की वापसी की मांग करते दिखे। नारे गूंजे— “हमरो राजा, हमरो देश”, “नारायणहिती खाली करो”।
सवाल उठता है— क्या 17 साल पहले जिस राजशाही को जनता ने नकार दिया था, वो अब फिर से लौट रही है? और क्या इस अशांति की आड़ में चीन एक बार फिर भारत को घेरने की चाल चल रहा है?
गणतंत्र दिवस के दिन राजशाही की हुंकार
28 मई, 2008 को नेपाल ने राजशाही को अलविदा कहकर लोकतांत्रिक गणराज्य का रास्ता चुना था। तब से हर साल इस दिन को गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है। लेकिन इस बार जश्न के साथ विरोध की भी गूंज थी।
- काठमांडू के रत्नपार्क में हजारों लोग एकत्र हुए।
- रैली का नेतृत्व राष्ट्रीय प्रजातंत्र पार्टी (RPP) के अध्यक्ष राजेन्द्र लिंगदेन ने किया।
- पार्टी प्रवक्ता ज्ञानेन्द्र शाही ने ऐलान किया कि आंदोलन तब तक जारी रहेगा जब तक नेपाल में राजशाही और हिंदू राष्ट्र की बहाली नहीं हो जाती।
इस विरोध को लेकर सरकार पहले से सतर्क थी। राजधानी में 6,000 से ज्यादा सुरक्षा कर्मियों को तैनात किया गया। भृकुटी मंडप और रत्नपार्क जैसे संवेदनशील इलाकों को छावनी में बदल दिया गया।

सरकार की दो टूक: लोकतंत्र से समझौता नहीं
प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपने संबोधन में कहा,
“आज भी जनसत्ता को एक विशेष वंश में केंद्रित करने के प्रयास हो रहे हैं, लेकिन हमारी सरकार लोकतंत्र और गणराज्य की रक्षा के लिए पूरी तरह प्रतिबद्ध है।”
गणतंत्र दिवस के अवसर पर सेना पवेलियन में आयोजित विशेष कार्यक्रम में राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल, पीएम ओली, और अन्य वरिष्ठ अधिकारी शामिल हुए। सांस्कृतिक झांकियों, पारंपरिक परिधानों और लोक संगीत के साथ यह समारोह देश की लोकतांत्रिक पहचान को दोहराने का प्रयास था।
राजनीतिक टकराव: सत्तापक्ष बनाम राजशाही समर्थक
इस बार का गणतंत्र दिवस असल में एक राजनीतिक अखाड़ा बन गया। एक ओर जहां सत्तारूढ़ कम्युनिस्ट पार्टी (CPN-UML) लोकतंत्र के समर्थन में कार्यक्रम कर रही थी, वहीं दूसरी ओर RPP और अन्य राजशाही समर्थक संगठन सड़कों पर सरकार के खिलाफ विद्रोह का ऐलान कर रहे थे।
राजशाही समर्थकों के प्रदर्शन में तलवारें तक लहराई गईं। सवाल यही है कि इस विरोध के पीछे असली ताकत कौन है?

क्या नेपाल चीन की चाल का अगला शिकार बन रहा है?
नेपाल में अचानक बढ़ी अस्थिरता सिर्फ आंतरिक राजनीति का मामला नहीं लगती। जब हम इस घटनाक्रम को बड़े क्षेत्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते हैं, तो तस्वीर और साफ हो जाती है।
पिछले कुछ वर्षों में चीन ने भारत के पड़ोसी देशों में गहरी घुसपैठ बनाई है:
- पाकिस्तान में CPEC के ज़रिए आर्थिक जाल फैलाया,
- म्यांमार में सेना के साथ सांठगांठ की,
- श्रीलंका को कर्ज़ में फंसा कर हम्बनटोटा बंदरगाह हथिया लिया,
- बांग्लादेश में बुनियादी ढांचे में भारी निवेश किया।
अब नेपाल में भी अस्थिरता की लहर चीन को नया अवसर दे सकती है।
विशेषज्ञ मानते हैं कि चीन लोकतांत्रिक देशों में अव्यवस्था फैलाकर वहां अपनी पकड़ मजबूत करता है। नेपाल की भौगोलिक स्थिति को देखते हुए, यह भारत के लिए एक रणनीतिक खतरा भी बन सकता है।

जनता का मन बदल रहा है या बदलवाया जा रहा है?
17 साल पहले जिस जनता ने लोकतंत्र के लिए सड़क पर आंदोलन किया था, वही अब दोबारा “राजा लाओ, देश बचाओ” के नारे लगा रही है। क्या ये जनता का बदलता विश्वास है, या फिर किसी बड़े राजनीतिक-भूराजनीतिक खेल का हिस्सा?
- बढ़ती बेरोज़गारी,
- महंगाई,
- भ्रष्टाचार,
- और नेतृत्व पर घटता भरोसा — ये सारे कारक लोगों को राजशाही की ओर फिर से देखने पर मजबूर कर रहे हैं।
भारत के लिए चेतावनी की घंटी
नेपाल में लोकतंत्र बनाम राजशाही की लड़ाई सिर्फ नेपाल का मामला नहीं है। यह भारत की सुरक्षा, चीन की विस्तारवादी नीति, और दक्षिण एशिया की स्थिरता से सीधा जुड़ा मुद्दा है। भारत को अब सिर्फ सीमा पर ही नहीं, अपने पड़ोस में भी लोकतंत्र की रक्षा के लिए सजग रहना होगा।
FAQs
Q1: नेपाल में राजशाही कब समाप्त हुई थी?
➡ 28 मई, 2008 को नेपाल ने आधिकारिक रूप से राजशाही को समाप्त कर संघीय लोकतांत्रिक गणराज्य की स्थापना की थी।
Q2: क्या नेपाल में राजशाही फिर लौट सकती है?
➡ जनभावनाएं बदल रही हैं, लेकिन संविधान में बदलाव और जनमत संग्रह के बिना इसकी वापसी संभव नहीं है।
Q3: चीन का नेपाल में क्या रोल है?
➡ चीन नेपाल में निवेश और राजनीतिक प्रभाव के जरिए धीरे-धीरे अपनी पकड़ मजबूत कर रहा है, जो भारत के लिए चिंता का विषय है।