Concept: R.P. Shrivastava , Writer: Vijay Nandan
Aravalli Crisis News: अरावली पर्वतमाला केवल पत्थरों और पहाड़ियों का समूह नहीं, बल्कि उत्तर भारत के पर्यावरणीय संतुलन की रीढ़ और प्राकृतिक सुरक्षा कवच है। लगभग 650 किलोमीटर लंबी और करीब 2 अरब वर्ष पुरानी यह पर्वत श्रृंखला थार रेगिस्तान को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकती है, मानसूनी हवाओं की दिशा को प्रभावित करती है और करोड़ों लोगों के लिए भूजल रिचार्ज का प्रमुख स्रोत है। नवंबर 2025 में सुप्रीम कोर्ट द्वारा अरावली की नई परिभाषा को मंजूरी दिए जाने के बाद यह बहस और गहरी हो गई है कि क्या विकास के नाम पर देश अपनी सबसे अहम पारिस्थितिक विरासत को कमजोर कर रहा है।
अरावली का फैलाव गुजरात के पाली और बनासकांठा क्षेत्र से शुरू होकर राजस्थान, हरियाणा और दिल्ली होते हुए पश्चिमी उत्तर प्रदेश तक माना जाता है। राजस्थान में यह मरुस्थलीकरण के खिलाफ दीवार है, हरियाणा और दिल्ली में वायु प्रदूषण व तापमान संतुलन का आधार, जबकि गुजरात और पश्चिमी यूपी में नदियों के जलग्रहण क्षेत्र और खेती की जीवनरेखा है। यही वजह है कि अरावली पर लिया गया कोई भी फैसला सिर्फ एक राज्य नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत के पर्यावरणीय भविष्य को प्रभावित करता है।

Aravalli Crisis News: अरावली क्यों है भारत के लिए जीवनरेखा
करीब 650 किलोमीटर लंबी और 2 अरब साल पुरानी अरावली पर्वत श्रृंखला दुनिया की सबसे प्राचीन पर्वतमालाओं में से एक है। यह राजस्थान से हरियाणा होते हुए दिल्ली तक फैली है। अरावली थार रेगिस्तान को पूर्व की ओर बढ़ने से रोकती है, मानसूनी हवाओं की दिशा तय करती है और भूजल रिचार्ज का सबसे बड़ा प्राकृतिक माध्यम है। यही कारण है कि इसे उत्तर भारत के “फेफड़े” कहा जाता है।

Aravalli Crisis News: कौन-कौन से राज्य होंगे सीधे प्रभावित
अरावली का प्रभाव केवल एक राज्य तक सीमित नहीं है। राजस्थान, हरियाणा, दिल्ली, गुजरात और पश्चिमी उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश भी इसके दायरे में आते हैं।
Aravalli Crisis News: राजस्थान में यह रेगिस्तान को रोकती है
- हरियाणा और दिल्ली में यह वायु प्रदूषण और तापमान संतुलन का काम करती है
- गुजरात में साबरमती और लूणी जैसी नदियों के जलग्रहण क्षेत्र इससे जुड़े हैं
- अरावली कमजोर हुई तो इन सभी राज्यों में जल संकट और पर्यावरणीय अस्थिरता बढ़ना तय है।
Aravalli Crisis News:100 मीटर की परिभाषा, सबसे बड़ा खतरा
नई परिभाषा के अनुसार अब केवल वही पहाड़ अरावली माने जाएंगे जो आसपास की जमीन से 100 मीटर या उससे अधिक ऊंचे हों। फॉरेस्ट सर्वे ऑफ इंडिया के आंकड़े बताते हैं कि इससे अरावली की लगभग 90% पहाड़ियां कानूनी सुरक्षा से बाहर हो जाएंगी। यही वे छोटी पहाड़ियां हैं जो वर्षा जल रोकती हैं, मिट्टी को थामे रखती हैं और जैव विविधता को जीवित रखती हैं।

Aravalli Crisis News: मानसून और जल चक्र पर असर, 7 बड़े खतरे
- विशेषज्ञों का मानना है कि अरावली के कमजोर होने से मानसून पैटर्न बिगड़ सकता है।
- मानसूनी हवाएं बिना अवरोध तेजी से निकल जाएंगी।
- वर्षा का वितरण असंतुलित होगा।
- सूखा और बाढ़, दोनों की घटनाएं बढ़ेंगी।
- इसका सीधा असर खेती, पेयजल और खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा।
- पर्यावरणीय और स्वास्थ्य संकट की आहट
हरियाणा और राजस्थान में अवैध खनन के कारण भूजल स्तर पहले ही 1,500 से 2,000 फीट तक नीचे जा चुका है। अरावली के जंगल कटने से उड़ती धूल दिल्ली-NCR में वायु प्रदूषण को और घातक बना रही है। सिलिकोसिस, अस्थमा और फेफड़ों से जुड़ी बीमारियों के मामले लगातार बढ़ रहे हैं, जिनका सबसे ज्यादा असर बच्चों और किसानों पर पड़ रहा है।

इतिहास और संस्कृति की भी रक्षा करती अरावली
अरावली केवल पर्यावरण नहीं, भारत की सांस्कृतिक ढाल भी रही है। चित्तौड़गढ़, कुम्भलगढ़ जैसे दुर्ग और महाराणा प्रताप का संघर्ष इसी पर्वत श्रृंखला से जुड़ा है। यह पहाड़ियां भारत के इतिहास में आत्मरक्षा और स्वाभिमान का प्रतीक रही हैं।
विकास या विनाश की पटकथा?
खनन, रियल एस्टेट और इंफ्रास्ट्रक्चर के नाम पर अगर अरावली को खोला गया, तो यह अल्पकालिक आर्थिक लाभ के बदले दीर्घकालिक पर्यावरणीय आपदा होगी। विशेषज्ञ चेतावनी दे रहे हैं कि अरावली को टुकड़ों में नहीं, पूरे क्षेत्र को क्रिटिकल इकोलॉजिकल ज़ोन घोषित कर ही बचाया जा सकता है।

अब फैसला सरकार के हाथ में
अरावली का सवाल सिर्फ कानून या परिभाषा का नहीं, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के जीवन का है। अगर आज छोटी पहाड़ियों को नजरअंदाज किया गया, तो कल बड़े शहर पानी, हवा और जीवन के लिए तरसेंगे। यह तय करना अब समाज, सरकार और न्यायपालिका तीनों की जिम्मेदारी है कि अरावली इतिहास में “डेथ वारंट” बनेगी या भविष्य की जीवनरेखा।

