पांच मार्च 1966 के काले दिन को मिजोरम के लोग आज भी भूल नहीं पाए हैं. पिछले 57 वर्षों से वे इसे लगातार जोरम दिवस के तौर पर मना रहे हैं. इस साल भी मिजोरम की राजधानी आइजोल में इसे मनाया गया. ऐसा पहली बार हुआ था, जब भारतीय वायुसेना का इस्तेमाल किसी प्रधानमंत्री ने अपने ही देश के लोगों पर हमले करने के लिए करवाया था. इंदिरा गांधी के दौर के इस काले अध्याय को लंबे समय तक देश के लोगों से छुपाकर रखा गया.
लोकसभा में विपक्ष के अविश्वास प्रस्ताव पर गुरुवार के दिन जवाब देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने एक ऐसी घटना का जिक्र किया, जिसके बारे में बहुत कम ही लोगों को पता है. ये घटना है 57 साल पुरानी, जब तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने भारत के ही एक हिस्से पर वायुसेना के विमानों से बमबारी करवाई थी, जिसमें बड़े पैमाने पर जान-माल का नुकसान हुआ था. स्वतंत्र भारत के इतिहास की ये पहली और आखिरी घटना है, जब देश के अंदर बमबारी करने के लिए भारतीय वायुसेना का इस्तेमाल किया गया हो.
पांच मार्च 1966 का दिन मिजोरम को अलगाववाद के रास्ते पर और मजबूती से झोंकने का दिन बन गया. उस दिन इंदिरा गांधी की तत्कालीन केंद्र सरकार ने मिजो विद्रोह को कुचलने के लिए हवाई हमले की शुरुआत की, जो सिलसिला अगले एक हफ्ते तक लगातार चलता रहा था. इन हवाई हमलों ने आइजोल सहित लुसाई हिल्स के नाम से मशहूर मिजो बहुल क्षेत्र के कई शहरों को तबाह किया.
अपनी ही सरकार की तरफ से अपने ऊपर कराये गये हवाई हमलों से मिजो लोगों में जो अलगाववाद की आग तेज हुई, उसने न सिर्फ इस इलाके को अगले पांच दशक तक हिंसा और आतंकवाद की आग में झोंके रखा, बल्कि इसी संघर्ष और हिंसा के दौरान मिजोरम ने एक अलग राज्य के तौर पर अस्तित्व हासिल किया 1987 में.
मिजोरम में नेहरू के समय शुरू हुआ अलगाववाद
मिजोरम में हिंसा और अलगाववाद की शुरुआत इंदिरा के पिता जवाहरलाल नेहरू के समय में हुई. वो भी केंद्र और असम की तत्कालीन सरकार की उपेक्षा के कारण. दरअसल 1959 में मिजो बहुल लुसाई हिल्स, जो तत्कालीन असम का हिस्सा था, वहां अकाल पड़ा. लुसाई हिल्स में अकाल होगा, इसकी आशंका स्थानीय निवासियों ने पहले ही व्यक्त की थी. लेकिन न तो नेहरू की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने ध्यान दिया और न ही असम की तत्कालीन सरकार ने. परिणाम ये हुआ कि लुसाई हिल्स के इलाके में चूहों की वजह से फसलें पूरी तरह बर्बाद हुई, अन्न का अकाल पड़ा और सैकड़ों की तादाद में लोगों की जान गई.
इस अकाल के बाद ही मिजो लोगों में अलगाववाद की भावना मजबूती से जड़ जमाने लगी. उन्हें लगा कि आजाद भारत का हिस्सा रहने के बावजूद न तो भारत सरकार ने उनकी चिंता की और न ही उस असम सरकार ने, जिसका राज्य का वो हिस्सा था. यहां तक कि भारत के साथ जुड़े रहने को उन्होंने अपने लिए अपशकुन माना.
सरकार की उपेक्षा से निराश होकर, मिजो कल्चरल सोसायटी के बैनर तले अकाल राहत कार्यों की शुरुआत मिजो लोगों ने खुद के संसाधनों से की. 1955 में अस्तित्व में आई इस सोसायटी के सचिव लालदेंगा थे. इसी सोसायटी ने मार्च 1960 में अपना नाम बदलकर मौतम फ्रंट कर लिया. मौतम यानी बांसों में फूल लगने का समय.
इस इलाके में करीब पचास वर्ष के अंतराल पर बांसों में फूल लगता है और इन फूलों को खाने के लिए ही बड़े पैमाने पर चूहे इकट्ठा होते हैं. चूहों की यही बड़ी संख्या बांस के फूलों का सफाया करने के बाद खेतों में लगी फसल का पूरी तरह सफाया कर देती है और अकाल की परिस्थिति पैदा हो जाती है. लुसाई हिल्स के लोगों को मौतम के बारे में सदियों से पता था, और इससे होने वाले खतरे के बारे में भी, लेकिन न तो आदिवासी हितरक्षक होने का स्वांग भरने वाले नेहरू को मिजो लोगों की इस चेतावनी से कोई फर्क पड़ा और न ही स्थानीय प्रशासन को. मिजो लोगों को खुद मौतम फ्रंट बनाकर अपना ख्याल रखने के लिए मजबूर होना पड़ा.
इसी मौतम फ्रंट ने आगे चलकर सितंबर 1960 में मिजो नेशनल फेमीन फ्रंट का नाम हासिल किया और साल भर बाद, 22 अक्टूबर 1961 को मिजो नेशनल फ्रंट का नया नाम. तब तक अलगाववाद की आग मिजो लोगों में और तेज हो चुकी थी. नेहरू की तत्कालीन केंद्र सरकार को मिजो लोगों के दर्द की कोई चिंता नहीं थी और न ही इस बात की फिक्र कि मामला कितनी गंभीर शक्ल अख्तियार करने वाला है. ये वही समय था, जब नेहरू चीन के साथ हिंदी-चीनी भाई-भाई का नाटक खेलने में लगे हुए थे, लेकिन उन्हें अपने ही मिजो भाइयों के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी.
परिणाम ये हुआ कि साल भर के अंदर ही जहां चीन ने नेफा के इलाके में हमले कर नेहरू के वैश्विक शांतिदूत बनने के सपने को चकनाचूर कर दिया, वहीं इसने अलगाववादी तत्वों को और प्रोत्साहित भी किया. जिस तरह से नेहरू ने ये मान लिया कि असम अब भारत के हाथ से निकल गया है और आकाशवाणी से आह भरते हुए असम के लोगों को विदा संदेश दे दिया, उससे ये संदेश और चला गया कि केंद्र में बैठी पंगु सरकार कुछ कर नहीं सकती. उस समय मिजो बहुल लुसाई हिल्स का इलाका असम का ही हिस्सा था.
लालदेंगा, जिन्होंने 1958-59 के अकाल के समय मिजो लोगों के बीच अपनी संस्था के जरिये राहत का सराहनीय कार्य किया था, मिजो नेशनल फ्रंट के बैनर तले जनतांत्रिक तरीके से 1963 में लुसाई हिल्स ऑटोनोमस डिस्ट्रिक्ट काउंसिल का चुनाव लड़कर लोगों की अगुआई करने की कोशिश की. लेकिन तत्कालीन कांग्रेसी सरकार की कारगुजारियों की वजह से जब उन्हें कामयाबी नहीं मिली, तो अलगाववाद का खूनी रास्ता अख्तियार किया.
पाकिस्तान इस मौके का इंतजार ही कर रहा था. तब के पूर्वी पाकिस्तान में लालदेंगा को मिजो नेशनल फ्रंट के कैंप चलाने की इजाजत दी गई. लालदेंगा की अगुआई में मिजो युवाओं का जत्था बढ़ने लगा, जिन्होंने अपने को सशस्त्र सेना के तौर पर संगठित किया. 1965 आते-आते लालदेंगा एक बहुत ही असरदार स्पेशल फोर्स की टुकड़ी तैयार कर चुके थे. इसमें वो जवान भी शामिल थे, जो कभी असम रेजिमेंट का हिस्सा था.
असम रेजिमेंट की बटालियन में हुई बगावत
दरअसल, लालदेंगा की लोकप्रियता और मिजो लोगों में बढ़ती अलगाववाद की भावना के कारण असम रेजिमेंट की दूसरी बटालियन में बगावत हो गई और इसको भंग करना पड़ा. इसका हिस्सा रहे सैन्य जवान मिजो नेशनल फ्रंट की सैन्य टुकड़ी का हिस्सा बन गये. परिणाम ये हुआ कि 1965 का साल खत्म होते-होते विद्रोहियों की आठ बटालियन लालदेंगा ने खड़ी कर ली. हर बटालियन में करीब दो सौ जवान थे. इस जबरदस्त तैयारी के साथ लालदेंगा ने मिजो बहुल इलाकों को एक स्वतंत्र देश के तौर पर अस्तित्व में लाने का सपना देख डाला और सशस्र विद्रोह की योजना बना डाली.
मिजोरम को स्वतंत्र देश बनाने के लिए शुरू हुआ ऑपरेशन जेरिको
भारत के खिलाफ बगावत और मिजोरम की स्वतंत्र देश के तौर पर रचना के अपने ख्वाब को लालदेंगा ने ऑपरेशन जेरिको का गुप्त नाम दिया. एक मार्च 1966 को ये ऑपरेशन लांच हुआ. आइजोल शहर को चारों तरफ से मिजो विद्रोहियों ने घेर लिया. यहां तक कि असम राइफल्स की छावनी के बाहर भी घेरा डाल दिया गया और इसको बेअसर कर दिया गया. हथियार लूट लिये गये, पेट्रोल पंपों पर कब्जा कर लिया गया.
यही हाल लुसाई हिल्स के दस दूसरे शहरों का भी रहा. उन इलाकों पर भी मिजो विद्रोहियों ने अपना कब्जा कर लिया. वहां मौजूद सुरक्षा जवानों को सरेंडर के लिए बाध्य किया गया. लालदेंगा की योजना ये थी कि अगर लुसाई हिल्स के इलाके पर कुछ दिनों तक मिजो नेशनल फ्रंट का झंडा फहरता रहा, तो ये अपने आप में स्वतंत्र देश बन जाने का प्रमाण होगा.
दिल्ली में तब तक नेहरू की बेटी इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठ चुकी थीं. सत्ता संभाले डेढ़ महीने हुए थे. गूंगी गुड़िया का प्रशासनिक अनुभव इस तरह की गंभीर परिस्थिति का सामना करने के लिए पर्याप्त नहीं था, ऊपर से ढंग के लोगों की सलाह भी पसंद नहीं थी. हाथ-पांव फूल गये. पिता को 1962 में किस तरह की शर्मिंदगी का सामना करना पड़ा था. चीन से हार के बाद, याद था इंदिरा को. चीन के डर के मारे पिता नेहरू तो भारतीय वायुसेना का इस्तेमाल नहीं कर पाए थे, लेकिन बेटी ने अपने ही लोगों पर वायु सेना का इस्तेमाल करने का इरादा कर लिया, बमबारी के लिए.
हवाई हमलों में तबाह हुआ आइजोल शहर
इंदिरा सरकार के फैसले के मुताबिक, पहले तो 2 मार्च को लुसाई हिल्स के इलाके को डिस्टर्ब एरिया घोषित करते हुए भारतीय सेना की एक माउंटेन ब्रिगेड को अगरतला से इस इलाके में भेजा गया, और फिर पांच मार्च 1966 से भारतीय वायुसेना के तूफानी और हंटर विमानों को हमले शुरू करने का आदेश दिया गया. अपने ही लोगों के खिलाफ आसमान से हंटर चलाने और बमों का तूफान बरपाने का सिलसिला शुरु हुआ. इन हवाई हमलों में न सिर्फ आइजोल शहर तबाह हुआ, बल्कि आधे दर्जन दूसरे शहर भी. लड़ाकू जहाजों से मशीनगन फायरिंग और बमबाजी का ये सिलसिला तेरह मार्च तक चला. सैकड़ों की तादाद में मिजो लोग मारे गये, लाखों की तादाद में लोग बेघर हुए. लोग अपने गांव और शहर छोड़कर जंगलों में भागने को मजबूर हुए.
मिजो लोगों को भरोसा ही नहीं हुआ कि उनका अपना देश भारत और उसकी हुक्मरान इंदिरा गांधी गुरिल्लाओं का मुकाबला करने की जगह अपने ही निर्दोष देशवासियों पर बम गिराएंगी और उनके घर तबाह करेगी. मिजो लोगों पर बमबारी करने वाले वायुसेना के पायलटों में राजेश पायलट और सुरेश कलमाड़ी के भी नाम उछले, जो आगे चलकर कांग्रेस के बड़े नेता बने. सबसे शर्मनाक बात ये रही कि जिस इंदिरा गांधी ने पीएम के तौर पर अपने ही देश के लोगों पर बमबारी करने का फैसला किया था, वो लंबे समय तक इस खबर को दबाती रहीं, बल्कि शर्मनाक तो ये रहा कि इंदिरा गांधी ने एक अखबार को ये कहा कि लड़ाकू जहाज दवा और भोजन सामग्री देने गये थे.
मिजोरम के लोग स्वाभाविक तौर पर इंदिरा युग के इस काले अध्याय को नहीं भूल सके. आखिर भूलते भी कैसे, बमबारी के बाद उन्हें अपने गांवों से उजाड़कर जबरदस्ती नई जगहों पर सड़कों के किनारे बसाया गया, ताकि उनकी निगरानी आसानी से हो सके. शिकायतों का समाधान और संसाधन- सुविधाएं बढ़ाने की जगह मिजो लोगों के आंदोलन को हथियार के बल पर दबाने का रास्ता अख्तियार किया इंदिरा ने.
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