एक शताब्दी से अधिक लंबा सफर, जिसमें भावनाएं, बदलाव और तकनीक साथ-साथ चले…
BY: Yoganand Shrivastva
सन् 1896 की गर्मियों का एक दिन… मुंबई के वॉटसन होटल में भीड़ कुछ अनोखा देखने के लिए जमा हुई थी। लुमिएर ब्रदर्स की मूविंग पिक्चर्स यानी चलती तस्वीरें भारत में पहली बार दिखलाई जा रही थीं। किसी ने सोचा भी नहीं था कि यह छोटा सा प्रदर्शन भारतीय समाज को बदल देने वाली एक विशाल क्रांति की नींव रखेगा — सिनेमा की।
1913: जब राजा हरिश्चंद्र आए और सिनेमा का जन्म हुआ
इस क्रांति को आकार दिया एक कलाकार, एक सपना देखने वाले इंसान ने — दादासाहेब फाल्के।
1913 में उन्होंने भारत की पहली पूर्ण लंबाई की मूक फिल्म राजा हरिश्चंद्र बनाई। इसमें संवाद नहीं थे, पर अभिनय इतना प्रभावशाली था कि दर्शकों ने बिना एक शब्द सुने कहानी महसूस की।
महिलाओं की भूमिका भी पुरुषों ने निभाई, क्योंकि सामाजिक रीति-रिवाजों के कारण महिलाएं फिल्मों से दूर रहती थीं।
मूक फिल्मों का युग (1913–1930): इशारों की जुबान
सिनेमा धीरे-धीरे लोकप्रिय हो रहा था। धार्मिक और पौराणिक कथाएं लोगों को आकर्षित कर रही थीं।
लंका दहन, कालिया मर्दन, सती सावित्री जैसी फिल्मों ने उस समय के समाज को दर्शाया।
फिल्में मूक थीं, लेकिन उनका संदेश गूंजता था।
1931: भारत ने पहली बार सुनी अपनी फिल्म की आवाज – आलम आरा
14 मार्च 1931 को आई भारत की पहली बोलती फिल्म आलम आरा — और इसके साथ ही एक नए युग की शुरुआत हुई।
“दे दे खुदा के नाम पर प्यारे”, यह पहला गाना बन गया भारत की सिनेमाई आवाज़ की पहचान।
अब फिल्में केवल देखने का ही नहीं, सुनने और महसूस करने का अनुभव बन चुकी थीं।
1940–1960: स्वर्ण युग – सिनेमा बना समाज का आईना
देश आज़ाद हुआ। और सिनेमा भी आज़ाद सोच के साथ समाज के मुद्दों को उठाने लगा।
गुरुदत्त, बिमल रॉय, महबूब खान, राज कपूर जैसे फिल्मकारों ने गरीबी, अन्याय, प्रेम और संघर्ष को पर्दे पर उतारा।
कुछ कालजयी फिल्में:
- मदर इंडिया (1957) – भारत मां का रूप
- प्यासा (1957) – टूटे सपनों का दर्द
- दो बीघा ज़मीन – किसान की त्रासदी
1970–1980: एंग्री यंग मैन का उदय, मसाला फिल्मों का धमाका
समाज में भ्रष्टाचार और असमानता बढ़ रही थी और सिनेमा ने इसका जवाब दिया अमिताभ बच्चन के रूप में —
एक “एंग्री यंग मैन” जो अन्याय के खिलाफ लड़ता है।
साथ ही इस दौर में रोमांस, संगीत, एक्शन और कॉमेडी का जबर्दस्त मिक्स देखा गया।
शोले, दीवार, त्रिशूल, अमर अकबर एंथनी ने सिनेमाघरों में आग लगा दी।
1990–2000: रोमांस, फैमिली और ग्लैमर की नई परिभाषा
भारत आर्थिक रूप से खुल रहा था और सिनेमा में भी बदलाव दिख रहा था।
SRK, सलमान, आमिर — ये तीनों खानों ने रोमांस, कॉमेडी और ड्रामा को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया।
Yash Raj, Dharma जैसे प्रोडक्शन हाउसों ने फैशन, म्यूजिक और आधुनिक सोच को पर्दे पर सजाया।
हिट फिल्में:
- DDLJ (1995) – प्यार, परिवार और परंपरा
- कुछ कुछ होता है (1998)
- हम आपके हैं कौन (1994) – भारतीय संयुक्त परिवार की खूबसूरती
2010 के बाद: डिजिटल दौर और ओटीटी की दहाड़
जैसे-जैसे स्मार्टफोन आया, सिनेमा जेब में आ गया।
Netflix, Amazon Prime, Hotstar जैसे ओटीटी प्लेटफॉर्म्स पर कहानियों ने आज़ादी पाई।
अब हीरो हमेशा अच्छा नहीं होता और खलनायक भी संवेदनशील हो सकता है।
कुछ चर्चित वेबसीरीज और फिल्में:
- सेक्रेड गेम्स
- पाताल लोक
- मिर्जापुर
- पंचायत
क्षेत्रीय सिनेमा का रुतबा बढ़ा
अब केवल बॉलीवुड ही नहीं, साउथ इंडियन सिनेमा भी भारत की पहचान बन गया।
बाहुबली, RRR, पुष्पा, 777 चार्ली जैसी फिल्मों ने साबित किया कि सिनेमा भाषा से नहीं, भावना से जुड़ता है।
भारतीय सिनेमा की वैश्विक पहचान
- 2023 में RRR का “नाटू नाटू” ऑस्कर जीत गया।
- The Elephant Whisperers ने भी भारत को गर्वित किया।
अब भारत की फिल्में सिर्फ देश में नहीं, ग्लोबल स्क्रीन पर छा रही हैं।
सिनेमा एक दर्पण भी है, दिशा भी
100 से अधिक वर्षों का यह सफर हमें दिखाता है कि सिनेमा केवल मनोरंजन नहीं है — यह एक आंदोलन है, एक भावना है, एक संस्कृति है।
भारत में सिनेमा की शुरुआत एक प्रयोग से हुई थी। आज वह आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस, वीएफएक्स, इंटरनेशनल अवॉर्ड्स और डिजिटल क्रांति तक पहुंच चुका है।
और यह यात्रा अभी खत्म नहीं हुई — यह तो बस इंटरवल है…